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मृत्युबोध के बाद ही महोत्सव संभव
मृत्यु का सत्य जीवन है। ध्यान में किसी दिन मृत्यु घट जाती है। जिस दिन ध्यान में मृत्यु घट जाती है, उस दिन ध्यान का नाम समाधि। इसीलिए समाधि शब्द हम दोनों के लिए उपयोग करते हैं-जब कोई मर जाता है तो कहते हैं समाधि ले ली, संत की कब्र को हम समाधि कहते हैं: और ध्यान की परम अवस्था को भी समाधि कहते हैं। क्यों? क्योंकि दोनों में मृत्यु घटती है। ध्यान की परम अवस्था में तुम्हें दिखायी पड़ जाता है, मरणधर्मा क्या है और अ-मरणधर्मा क्या है। मृत और अमृत अलग-अलग हो जाते हैं। दूध और पानी अलग-अलग हो जाते हैं।
इस दूध और पानी को अलग-अलग कर लेने वालों को हमने परमहंस कहा है। क्योंकि परमहंस का अर्थ होता है, वह जो दूध और पानी अलग-अलग कर ले। हंस के साथ कवियों ने यह भाव जोड़ दिया है कि हंस की यह क्षमता होती है कि दूध-पानी मिलाकर रख दो, तो वह दूध पी लेगा और पानी छोड़ देगा। ऐसे ही मिले हैं देह और चैतन्य; मिट्टी और आकाश का ऐसा ही मिलन हुआ है। तुम बने हो मिट्टी
और आकाश के मेल से। जिस दिन तुम्हारे भीतर परमहंस-भाव पैदा होगा, ध्यान की उत्कृष्टता होगी, ध्यान की प्रखर धार काट देगी दोनों को अलग-अलग-मिट्टी इस तरफ पड़ी रह जाएगी, अमृत उस तरफ हो जाएगा उस दिन तुम जानोगे कि मृत्यु का सत्य जीवन है। __ मृत्यु को जानकर ही असली उत्सव शुरू होगा फिर। फिर तुम नाचो। फिर नाचने के अतिरिक्त बचा ही क्या? फिर और करोगे क्या? मरना तो है नहीं। और जब मृत्यु ही न रही, तो फिर कैसा दुख! कैसा विषाद! कैसी चिंता! फिर नृत्य में एक अभिनव गुण आ जाता है। फिर नृत्य तुम्हारा नहीं होता, परमात्मा का हो जाता है। फिर तुम नहीं नाचते, परमात्मा तुम्हारे भीतर नाचता है।
इसलिए मैं कहता हूं-मृत्युबोध में और उत्सव में विरोध नहीं है, मृत्युबोध के बाद ही महोत्सव शुरू होता है।
तीसरा प्रश्नः
आप कहते हैं कि संन्यासी को भागना नहीं, जागना है। पर संसार में रहते यह जागना हो कैसे सकता है!
और कहां जागोगे? संसार ही है, यहीं सोए हो, यहीं जागना होगा। इस बात को
समझ लो-जहां सोओगे, वहीं जागोगे न! सोए तो पूना में और जागो दिल्ली में, ऐसा थोड़े ही होने वाला है। सोए पूना में तो पूना में ही जागोगे। जहां सोए, वहीं जागोगे। इसे तुम जीवन के गणित की एक बहुत बहुमूल्य कड़ी मानो,
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