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एस धम्मो सनंतनो
शरीर मृत की तरह पड़ा रह गया, श्वास रुक गयी, ठहर गयी, शांत हो गयी। एक क्षण जैसे मृत्यु घट गयी। और उसी क्षण जीवन भी घट गया, क्योंकि मृत्यु का सत्य जीवन है। जैसे सब जीवन मृत्यु में ले जाता है, वैसे सब मृत्यु और बड़े जीवन में ले जाती है, बस तुम जागे होओ, तो काम हो जाए।
रमण जागे थे, देखते रहे, चकित हो गए-शरीर तो मर गया, मैं नहीं मरा; मन तो मर गया, मैं नहीं मरा; सब तो मर गया, मैं तो हूं, चैतन्य तो है,,चैतन्य तो
और भी प्रगाढ़ रूप से है जैसा कभी न था। ऊपर-ऊपर का जाला कट गया, ऊपर-ऊपर की व्यर्थ की धूल हट गयी, भीतर की मणि और भी चमकने लगी, और भी ज्योतिर्मय हो गयी। मिट्टी मरती है, मृण्मय मरता है, चिन्मय की कैसी मौत! देह जाती और आती, तुम न आते, न जाते। एस धम्मो सनंतनो। तुम तो शाश्वत हो। . तुम परमात्म-स्वरूप हो।
उस घड़ी रमण को दिखायी पड़ा कि उपनिषद ठीक कहते हैं-अहं ब्रह्मास्मि। तब तक सुनी थी बात, पढ़ी भी थी, पर अनुभव में न आयी थी, उस दिन अनुभव में आ गयी, उस दिन साक्षात्कार हुआ। उठकर बैठ गए। उसी दिन क्रांति घट गयी। फिर और कुछ नहीं किया। बात हो गयी, मुलाकात हो गयी, मिलन हो गया, अमृत का अनुभव हो गया।
फिर जब वर्षों बाद, कई वर्षों बाद दुबारा मौत आयी-रमण को कैंसर हुआ और मित्र बहुत चिंतित होने लगे, भक्त बहुत चिंतित होने लगे तो रमण बार-बार आंख खोलते और वह कहते, तुम नाहक परेशान हो रहे हो, जिसके लिए तुम परेशान हो रहे हो, वह तो कई साल पहले मर चुका। और जिसके लिए तुम सोचते हो, आदर करते हो, श्रद्धा करते हो, उसकी कोई मृत्यु नहीं, तुम नाहक परेशान हो रहे हो। जो मर सकता था, मर चुका बहुत दिन पहले, उसके मरने पर ही तो मेरा जन्म हुआ; और अब जो मैं हूं, इसकी कोई मृत्यु नहीं।
रामकृष्ण मरते थे। शारदा उनकी पत्नी रोने लगी तो रामकृष्ण ने आंखें खोली और कहा कि चुप, किसलिए रोती है? मैं न कहीं गया, न कहीं आया; मैं जहां हूं वहीं रहूंगा। तो शारदा ने पूछा, तुम्हारी देह के चले जाने के बाद मेरी चूड़ियों का क्या करना? ठीक बात पूछी। विधवा हो जाएगी तो चूड़ियां तो फोड़नी पड़ेंगी। रामकृष्ण ने कहा कि मैं मरूंगा ही नहीं तो चूड़ियां फोड़ेगी कैसे! तू सधवा है और सधवा रहेगी।
सिर्फ भारत में एक ही विधवा हुई जिसने चूड़ियां नहीं फोड़ी-शारदा ने। फोड़ने का कोई कारण ही न रहा। रामकृष्ण सबके लिए मर गए, शारदा के लिए नहीं मरे। शारदा का भाव ऐसा था रामकृष्ण के प्रति, कि रामकृष्ण की प्रतीति उस भाव में उसकी भी प्रतीति हो गयी। उसे भी दिख गया कि बात तो सच है, देह जाती है-देह से तो लेना-देना भी क्या था—देह के भीतर जो ज्योतिर्मय विराजमान था वह तो रहेगा, वह कैसे जाएगा!
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