________________
मृत्युबोध के बाद ही महोत्सव संभव
लेट गए—आ रही तो आ रही! सत्य का खोजी क्या करे? जो आ रहा, उसे देखे। जो आ रहा, उसे पहचाने। जो आ रहा, उसमें आंखें गड़ाए, उसका दर्शन करे। लेट गए। न भागे, न चिल्लाए; न चीखा, न पुकारा। मरने लगे। जब मौत आ रही है तो आ रही है ! जो परमात्मा भेज रहा है, वही उसका प्रसाद है, वह उसकी भेंट है। जैसे जीवन उसने दिया, वैसे ही मौत दे रहा है, अंगीकार कर लिया...। _इसको बुद्ध ने तथाताभाव कहा है। जो हो, उसे वैसा ही स्वीकार कर लेना। उसमें ना-नुच न करना। ऐसा हो, वैसा हो, ऐसी अपनी आकांक्षा न डालना। जैसा हो, वैसा का वैसा।
कबीर ने कहा है-जस का तस, जैसा का तैसा, वैसा ही स्वीकार कर लेना। क्योंकि जब तक तुम अस्वीकार करते हो, तब तक तुम जीवन से लड़ रहे हो, तब तक तुम परमात्मा से संघर्ष कर रहे हो। तब तक किसी न किसी भांति तुम अपनी आकांक्षा आरोपित करना चाहते हो। तब तक तुम सत्य के खोजी नहीं हो। तब तक तुम्हारा अहंकार प्रगाढ़ है। जो है, जैसा है, उसे वैसा ही स्वीकार कर लेने में अहंकार समाप्त हो जाता है। अहंकार के खड़े होने की जगह नहीं रह जाती। संघर्ष गया, अहंकार गया।
रमण लेट गए। राजी हो गए, मौत आती है तो मौत आती है। अपने बस क्या है! जिहि विधि राखे राम तिहि विधि रहिए। अब मौत आ गयी तो मौत आ गयी। अब इसी विधि राम ले जाना चाहते हैं तो ठीक, यह उनकी मर्जी। वे चलने को तैयार हो गए। इसको लाओत्सू ने कहा है-नदी की धार में बहना, नदी की धार के खिलाफ लड़ना नहीं।
अहंकार धारे के खिलाफ लड़ता है। अहंकार कहता है, ऊपर की तरफ जाऊंगा। गंगोत्री की तरफ यात्रा करता है अहंकार। गंगा जा रही है गंगासागर, अहंकार जाता है गंगोत्री की तरफ, इसलिए संघर्ष हो जाता है, इसलिए गंगा से टक्कर हो जाती है। यह जो विराट गंगा है अस्तित्व की, इसके साथ, धारे के साथ बहने का नाम ही समर्पण है। __ बहने लगे धारे के साथ, देखने लगे क्या हो रहा है, पैर सुस्त हो गए, शून्य हो गए, मर गए; हाथ सुस्त हो गए, शून्य हो गए, मर गए। और रमण जागे हुए भीतर देख रहे हैं और तो कुछ करने को नहीं है—एक दीया जल रहा है ध्यान का, देख रहे हैं कि यह हो रहा है, यह हो रहा है, यह हो रहा है, सारा शरीर शववत हो गया। देख रहे हैं। एक क्षण को तो ऐसा लगा कि श्वास भी गयी। देख रहे हैं। और उसी क्षण क्रांति घटी। शरीर मृत हो गया, मन के विचार धीरे-धीरे शांत हो गए। क्योंकि सब विचार संघर्ष के विचार हैं, जब तक तुम ऊपर की तरफ तैरना चाह रहे हो तब तक विचार हैं; जितना ऊपर की तरफ तैरना चाहोगे उतने ही विचार चिंतापूर्ण हो जाते हैं। जब बहने ही लगे धार के साथ, कैसा विचार! कैसी चिंता! चिंता भी छूट गयी।
161