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एस धम्मो सनंतनो
वास्तविक तो वे ही नाचे हैं, जिन्होंने जीवन में कोई झूठ खड़ा नहीं किया। सत्य के साथ ही, सत्य के संग ही असली नृत्य है। सत्संग में ही असली नृत्य है। झूठ के साथ कैसा नृत्य! समझा लिया मन को, बुझा लिया, किसी तरह नाचने लगे, तो किसी तरह का नाचना होगा, जबर्दस्ती होगी, सहज उमंग न होगी, सहज प्रवाह न होगा। और तुमने ही तो झुठलाया है, तो तुम अपने ही झूठ को भूलोगे कैसे, वह तो याद रहेगा ही। मरना तो है ही, मरना तो होगा ही।
और जिस चीज को हम दबाते हैं, वह और उभर-उभरकर सामने आती है। जिसे हम छिपाते हैं, वह हमारे रास्ते में पड़ने लगती है। इस जगत में कोई भी झूठ स्थिर नहीं बनाया जा सकता है। कोई भी झूठ सत्य का धोखा नहीं दे सकता। थोड़ी-बहुत देर तुम अपने को धोखा दे लो, कितनी देर धोखा दोगे! अपने को ही कैसे धोखा दोगे! तुम जानते हो कि धोखा दे रहे हो। ____ हर बार मरते आदमी को देखकर तुम्हें समझ में आता है कि अपनी भी घड़ी आती है, क्यू छोटा होता जाता है, उसी में तो हम खड़े हैं, एक आदमी और मर गया, आगे से सरक गया, क्यू थोड़ा और आगे बढ़ गया, हमारी मौत और थोड़ी करीब आ गयी। कैसे झुठलाओगे? दांत गिरने लगे, बाल सफेद होने लगे, अब पहले जैसे दौड़ नहीं सकते, अब सीढ़ियां चढ़ते हो तो हांफ चढ़ने लगी, कैसे झुठलाओगे? मौत हर जगह से खबर दे रही है, दस्तक मार रही है। अब पुराने दिन जैसी बात न रही, जरा कुछ खा लेते हो तो अड़चन हो जाती है, जरा ज्यादा खा लेते हो तो अड़चन हो जाती है, जरा ज्यादा हंस लेते हो तो थक जाते हो; रोने की तो बात छोड़ो, हंसी में भी थकान आने लगी। मौत करीब आ रही है, मौत सब तरफ से खबर भेज रही है–सावधान! कैसे नाचोगे? कितनी देर नाचोगे? नाच में से ही मौत उभरने लगेगी। नाच में ही मौत खड़ी हो जाएगी।
नहीं, झूठ के साथ, असत्य के साथ कोई नृत्य नहीं है। मैं तुमसे कहता हूं, मृत्यु का तो बोध चाहिए। क्योंकि जैसा मैंने अभी-अभी कहा, मृत्यु का सत्य जीवन है; अगर तुम्हें मृत्यु का ठीक-ठीक बोध हो जाए, तुम मृत्यु को पहचान लो, मृत्यु का साक्षात्कार हो जाए-जो कि हो सकता है; ध्यान के सारे प्रयोग मृत्यु के प्रयोग हैं। इसलिए तो मैं कहता हूं कि मैं तुम्हें मृत्यु सिखाता हूं। एक बार तुम मृत्यु को ठीक से सीख लो, मृत्यु की भाषा समझने लगो, तुम अपने को मरता हुआ एक बार देख लो...। ___ रमण महर्षि के जीवन में ऐसी घटना घटी। वही घटना क्रांति की घटना हो गयी। उससे ही उनके भीतर महर्षि का जन्म हुआ। अठारह, सत्रह-अठारह साल के थे, घर छोड़कर भाग गए थे सत्य की खोज में, कई दिन के भूखे थे, प्यासे थे, एक मंदिर में जाकर ठहरे थे। पैरों में फफोले पड़ गए थे चलते-चलते। कई दिन की भूख, कई दिन की प्यास, थकान, उस मंदिर में पड़े-पड़े रात ऐसा लगा कि मौत आ रही है।
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