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________________ मृत्युबोध के बाद ही महोत्सव संभव तो टालो कि मेरी होती ही नहीं । और एक अर्थ में बात सही भी है, तुमने अपने को मरते तो कभी देखा नहीं, सदा दूसरों को मरते देखते हो-कभी कोई मरा, कभी कोई मरा, तुम तो कभी मरे नहीं । कभी इसको ले गए मरघट, कभी उसको ले गए मरघट, तुम स्वयं को तो कभी मरघट ले गए नहीं । तुम तो सदा लौट लौट आते हो, दूसरों को विदा कर आते हो। तो स्वाभाविक तर्क होगा कि दूसरे मरते हैं, मैं तो मरता नहीं। यह भी टालने का एक ढंग है। मगर ज्यादा देर न टाल सकोगे। मन भीतर कहता है कि दूसरे भी तो ऐसा ही सोचते थे जैसा मैं सोचता हूं, जैसे मैं उनको पहुंचा आया, ऐसे दूसरे मुझे पहुंचा आएंगे। लोग तैयार ही बैठे हैं। इधर तुम मरे नहीं कि वे अर्थी बनाने लगते हैं । जैसे तुम बनाए हो दूसरों की अर्थी, दूसरे भी तो तुम्हारी बनाएंगे ! यह बात ज्यादा देर टाली नहीं जा सकती। तो फिर एक खयाल कि कोई आज थोड़े ही मौत हो रही है ! अभी क्यों दिल गमगीन करो ! अभी क्यों उदास ! जब होगी तब देखेंगे। आज तो कभी नहीं होती मौत, कल होगी, परसों होगी, वर्षों बाद होगी, सत्तर वर्ष बाद होगी, होगी तब होगी ! टालते हैं हम | टालकर हम सोचते हैं कि अब हम जरा नाच लें, थोड़ा गीत गुनगुना लें, थोड़ा प्रेम कर लें, थोड़ी मैत्री बना लें; थोड़ा राग-रंग हो, रस बहे । मौत को दरवाजों के बाहर करके, सब तरफ से दरवाजे बंद करके हम नाचते हैं। तो तुम्हारा प्रश्न ठीक है कि अगर मृत्यु का बोध होगा - सब दरवाजे खोल दें, और अनुभव में आने दें कि मैं भी मरूंगा जैसे और मरते हैं, सच में दूसरों की मौत मेरी ही मौत की खबर लाती है, हर अर्थी गुजरती है और हर अर्थी मेरी ही अर्थी के बंधने का इंतजाम करती है, जब भी कोई मरता है तो मनुष्य मरता है, मैं भी मनुष्य हूं, हर मृत्यु में मेरी मृत्यु का इशारा छिपा है, सब दरवाजे खोल दें; और कभी भी मरूं, मरना तो होगा, और वह कभी भी कभी भी घट सकता है, आज भी घट सकता है, एक क्षण बाद घट सकता है, अभी हूं और दूसरी सांस न आए; सब दरवाजे खोल दें मौत के तो तुम कहते हो, फिर तो हम, एकदम पक्षाघात लग जाएगा, पैर ठिठुर जाएंगे, हाथ अकड़ जाएंगे, फिर क्या नाचेंगे ? फिर कैसे उत्सव होगा ? और मैं कहता हूं, दोनों बातें साथ होंगी। साथ ही हो सकती हैं। मेरे हिसाब में अगर तुमने मौत को द्वार - दरवाजों के बाहर बंद कर दिया है, तो मौत दस्तक मारती रहेगी। तुम नाचो, मगर मौत की दस्तक सुनायी पड़ती रहेगी। मौत चीखती- पुकारती रहेगी, क्योंकि तुम एक झूठ कर रहे हो। तुम्हारा नाच झूठ है, तुम्हें भी पता है । जिन पैरों से तुम नाच रहे हो, उन पैरों में मौत समा रही है; जिस कंठ से तुम गा रहे हो, वह कंठ मरने की तैयारी कर रहा है; जिस हृदय से तुम श्वास ले रहे हो, उसकी श्वास हर क्षण कम होती जा रही है। तुम मौत को झुठलाकर उत्सव का ढोंग कर सकते हो, उत्सव वास्तविक नहीं हो सकता । 159
SR No.002387
Book TitleDhammapada 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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