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________________ एस धम्मो सनंतनो ऐसा जो मृत्यु की खोज में जाता है, वह अचानक पाता है कि मृत्यु की अंधेरी गुफा में जैसे-जैसे तुम प्रवेश करते हो, वैसे-वैसे जीवन के अत्यंत आलोकमयी जगत में प्रविष्ट हो जाते हो। इस विपरीत सत्य को, इस पोलेरिटी को, इस ध्रुवीयता को जिसने समझ लिया, उसके हाथ में जीवन की बड़ी कुंजी आ गयी। __यह विपरीत सत्य बहुत रूपों में प्रगट होता है। धन पकड़ना चाहो और तुम निर्धन रह जाओगे। धन छोड़ो और तुम धनी हो गए। यह भी इसी सत्य का एक रूप है। तुम यशस्वी होना चाहो और अपमान हाथ लगेगा, और तुम सब यश की आकांक्षा छोड़कर निर्जन में बैठ रहो और तुम पाओगे कि यश तुम्हारा रास्ता खोजता हुआ दूर जंगल में भी आने लगा। यह भी उसी सत्य की अभिव्यक्ति है। तुम चाहो जैसा वैसा नहीं होता, उससे उलटा हो जाता है। इसलिए चाह को समझो, अन्यथा दुखी होते रहोगे। जो चाहोगे, वह तो मिलेगा नहीं, उससे उलटा मिलेगा। स्वभावतः दुख होगा। अगर तुम जीवन चाहते हो, तो मृत्यु के लिए राजी हो जाओ। अगर वास्तविक धन चाहते हो, जो कोई तुमसे न छीन सकेगा, तो निर्धन होने में प्रसन्न हो जाओ। अगर तुम सच में प्रतिष्ठा चाहते हो, तो सम्मान की कोई आकांक्षा न करो। अगर तुम विजय चाहते हो, जिन होना चाहते हो, जीतना चाहते हो स्वयं को, तो जीत का सारा भाव ही छोड़ दो। सर्वहारा हो जाओ। इन विपरीत सत्यों के कारण पूर्वीय वक्तव्य पश्चिम की आंखों में बड़े उलटे मालूम होते हैं। बड़े अतळ, विक्षिप्त जैसे मालूम होते हैं। यह भी कोई बात हुई-धन पाना हो, धन छोड़ दो! जीवन पाना हो, जीवन छोड़ दो! यह कौन सा तर्क है? पश्चिम के मनीषी इसे समझ नहीं पाते। वे कहते हैं, रहस्यवादी बातें हैं, पागलों जैसी बातें हैं। __जरा भी पागलों जैसी बातें नहीं हैं, जीवन के परम सत्य पर आधारित बातें हैं। इनसे ज्यादा तर्कयुक्त और क्या होगा? यह सीधा तर्क है। इसे तुम जीवन में परखो और तुम इसे रोज-रोज पाओगे। जितना सम्मान चाहोगे उतने अपमानित होने लगोगे। क्योंकि जितना सम्मान चाहोगे, उतना अहंकार प्रबल होगा, और अहंकार को जरा-जरा सी चोट फिर लगने लगती है, जरा-जरा सी चोट लगने लगती है। उतना ही दुख होने लगता है। तुमने सम्मान की फिक्र छोड़ी, अहंकार का मामला गया, अहंकार का घाव समाप्त हुआ, अब तुम्हें कौन चोट पहुंचा सकता है? __लाओत्सू कहता है, मुझे कोई हरा नहीं सकता, क्योंकि मैं जीतना ही नहीं चाहता हूं। लाओत्सू कहता है, मैं जीता ही हुआ हूं, क्योंकि मैंने अपनी हार को स्वीकार कर लिया है। अब मुझे कौन हराएगा? __हमने इस देश में देखा, बुद्ध को देखा, महावीर को देखा। सब छोड़कर महावीर नग्न हो गए, लेकिन उन जैसा समृद्ध व्यक्ति पहले कभी देखा नहीं गया था। उस नग्नता में परम समृद्धि थी। 156
SR No.002387
Book TitleDhammapada 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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