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________________ लोभ संसार है, गुरु से दूरी है अनाथपिंडक ने, तो भगवान ऐसी श्रद्धा कैसे उपलब्ध हो जैसी सुभद्दा को मिली ? कैसे संत हमें भी दूर से ज्योतिर्मय प्रकाश की तरह दिखायी पड़ने लगें, हिमालय की तरह दिखायी पड़ें? हिमालय तो सैकड़ों मील दूर से दिखायी पड़ जाता है। पूछा होगा अनाथपिंडक ने, मैं तो आपके पास हूं, लेकिन पास ही लगे रहने का मोह बना रहता है, क्योंकि दूर जाता हूं और आप खो जाते हैं, इस मेरी बेटी सुभद्दा को क्या हुआ? यह घटना मेरे भीतर कैसे घटे ? तो बुद्ध ने कहा - एकासनं एकसेय्यं एको चरमतंदितो। एकोदममत्तानं वनंते रमतो सिया ।। 'एक ही आसन रखने वाला, एक शय्या रखने वाला और अकेला विचरने वाला बने ।' एकांत में रस ले, अकेले होने में रस ले। भीड़-भाड़ में रस को तोड़े, पर में रस को तोड़े, स्वयं में डूबे । आत्मरमण करे। 'आलस्यरहित हो और अपने को दमन कर अकेला ही वनांत में रमण करे । ' और अहंकार को दबा दे, मिटा दे, नष्ट कर दे, अहंकार को जला दे । अपने को दमन कर- — एकोदममत्तानं - वह जो अत्ता है हमारे भीतर, अहंकार है, वह मैं- भाव जो है, उस अत्ता को बिलकुल ही नष्ट कर दे । फर्क खयाल में लेना । अक्सर ऐसा होता है, जो आदमी अकेले में जाता है वह और अहंकारी हो जाता है, इसलिए बुद्ध ने यह बात कही । एकांतसेवी हो, लेकिन अहंकारसेवी न बन जाए। अकेले में रहे, लेकिन अकेले में रमते रमते ऐसा न सोचने लगे कि मैं कोई बड़ा महत्वपूर्ण, कुछ विशिष्ट हो गया । संन्यस्त बने, लेकिन मैं संन्यासी हूं, ऐसी अकड़ न पकड़ जाए। ध्यान करे, लेकिन मैं ध्यानी हो गया, ऐसा अहंकार निर्मित न होने दे। 'एक ही आसन रखने वाला ।' न तो शरीर को बहुत हिलाए - डुलाए, एक ही आसन में बैठे। क्यों? क्योंकि जब तुम्हारा शरीर बहुत हिलता डुलता है तो तुम्हारा मन भी हिलता डुलता है। सब जुड़े हैं। एकासन का मतलब होता है, शरीर को भी थिर रखें। शरीर के थिर रहने से मन के थिर रहने में सहायता मिलती है। - तुम जरा करके देखना। जब तुम्हारा शरीर बिलकुल थिर होकर रह जाएगा, जैसे ज्योति हिलती भी न हो, हवा का कंप भी न आता हो, तो तुम अचानक पाओगे तुम्हारा मन भी शांत होने लगा । यह सत्य योगियों को सदा से ज्ञात रहा है। इसलिए आसन का बड़ा बहुमूल्य 149
SR No.002387
Book TitleDhammapada 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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