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एस धम्मो सनंतनो
अनाथपिंडक बुद्ध के खास श्रावकों में एक था। उसका असली नाम क्या था, भूल ही गया है । बुद्ध उसे अनाथपिंडक कहते थे, क्योंकि वह बड़ा दानी था, अनाथों Aata था । अनाथों को देने के कारण अनाथपिंडक था । जेतवन उसी की भूमि थी, जो उसने बुद्ध को भेंट की थी। उसकी बेटी थी चूलसुभद्दा। बचपन से ही बुद्ध की छाया में बड़ी हुई थी। जेतवन में बुद्ध अक्सर ठहरते थे । ये इतनी जो कहानियां मैंने कहीं, बहुत सी कहानियों में जेतवन में विहरते थे, जेतवन में विहरते थे, आता है। जेतवन अनाथपिंडक द्वारा दिया गया जंगल था बुद्ध के लिए।
छोटी थी, तभी से चूलसुभद्दा ने बुद्ध की तरफ देखना शुरू किया था । सौभाग्यशाली थी, धन्यभागी थी, क्योंकि जिन्हें बचपन से बुद्धपुरुषों का साथ मिल आए उससे बड़ी और कोई बात नहीं। क्योंकि बच्चों के हृदय होते हैं सरल, उन पर छाप जल्दी पड़ती है, गहरी पड़ती है । जितनी देर होती जाती है उतनी मुश्किल होती जाती है। उतनी जटिलता हो जाती है। बड़े होकर और हजार बातें बाधा बन जाती हैं। बच्चे के सामने कोई बाधा नहीं होती । बच्चे तो एक अर्थ में बुद्ध के निकटतम होते हैं। उन्हें मौका मिल जाए तो उनकी वीणा तो जल्दी बजने लगती है। उन्हें मौका मिल जाए तो उनका ध्यान तो जल्दी लगने लगता है। मौके की ही बात है ।
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चूलसुभद्दा सौभाग्यशाली थी । अनाथपिंडक बुद्ध का दीवाना श्रावक था । बुद्ध के पीछे पागल होकर घूमता था । जहां बुद्ध जाते, वहीं जाता था । और अक्सर बुद्ध उसकी भूमि में निवास करते थे। तो चूलसुभद्दा बचपन से ही बुद्ध की वाणी पर पली थी। दूध के साथ ही उसने बुद्ध का स्मरण भी पीया था ।
फिर उसका विवाह हुआ। जिसके यहां विवाह हुआ— उग्गत सेठ के पुत्र से, उग्रनगरवासी – उसकी बुद्ध में कोई श्रद्धा न थी । उसने बुद्ध को कभी देखा भी न था । उसकी श्रद्धा तो चमत्कारों में थी । तो बाजीगर, जादूगर, मदारी, कोई स्थूल बातें दिखलाएं, इसमें उसकी श्रद्धा थी । उसके घर में ऐसे पाखंडियों की कतार लगी रहती । वह चूलसुभद्दा को भी स्वभावतः कहता था कि हमारे गुरु आए हैं, उनके चरण छुओ । चूलसुभद्दा मुश्किल में पड़ती होगी - इनकार भी नहीं करना चाहती थी, और जिसने बुद्ध के चरण छुए हों, कथा कहती है, अब हर किसी के चरण छूना कठिन हो जाता है। जिसने बुद्ध को देखा हो, फिर और कोई सूरत मन नहीं भाती । जिसने बुद्ध से थोड़ी सी भी संगति बांध ली हो, कोहिनूर मिल गया, अब कंकड़-पत्थरों की कोई कितनी ही प्रशंसा करे, कितनी ही स्तुति करे, तो भी उसकी पहचानने वाली आंखें अब कंकड़-पत्थरों के लोभ में नहीं पड़ सकतीं।
वह हंसती होगी मन ही मन में, कुछ कहती भी न थी - घूंघट मार लेती होगी — कि कोई ताबीज निकालकर दे रहा है हवा से, कोई राख गिरा रहा है, सब मदारी। इनके जीवन में नहीं कोई बुद्धत्व की किरण है, नहीं कोई शांति है, नहीं कोई आनंद है, नहीं कोई समाधि है ।
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