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लोभ संसार है, गुरु से दूरी है
चूलसुभद्दा ने ससुर की ऐसी बात सुनकर जेतवन की ओर प्रणाम करके, आनंद आंसुओं से भरी हुई आंखों से कहा- भंते, कल के लिए पांच सौ भिक्षुओं के साथ मेरा भोजन स्वीकार करें। मुझे भुला तो नहीं दिया है न! और मेरी आवाज तो आप तक पहुंचती है न! मैं हूं चूलसुभद्दा! और फिर उसने तीन मुट्ठी जुही के फूल आकाश की ओर फेंके। वे फूल वहीं जमीन पर गिर पड़े। ससुर और उसका सारा परिवार इस पागलपन पर खूब हंसा। क्योंकि जेतवन वहां से मीलों दूर था जहां बुद्ध ठहरे थे।
और जब फूल ही नहीं गए तो संदेश क्या खाक जाएगा। लेकिन चूलसुभद्दा भगवान के स्वागत की तैयारियों में संलग्न हो गयी।
अब दृश्य बदलें, चलें जेतवन
भगवान बोलते थे-सुबह-सुबह की घड़ी होगी-बीच में अचानक आधा वाक्य था, अटक गए; बोले नहीं, रुक गए। और बोले-भिक्षुओ, जुही के फूलों की गंध आती है न! और उन्होंने उग्रनगर की ओर आंखें उठायीं। तभी अनाथपिंडक ने खड़े होकर कहा-भंते, कल के लिए मेरा भोजन स्वीकार करें। भगवान ने कहा-गृहपति, मैं कल के लिए तुम्हारी बेटी चूलसुभद्दा द्वारा निमंत्रित हूं। उसने जुही के फूलों की गंध के साथ अभी-अभी आमंत्रण भेजा है। अनाथपिंडक ने चकित होकर कहा-भंते, चूलसुभद्दा यहां से मीलों दूर है, वह कैसे आपको निमंत्रित की है! मैं उसे यहां कहीं देखता नहीं। भगवान हंसे और उन्होंने कहा- गृहपति, दूर रहते हुए भी सत्पुरुष सामने खड़े होने के समान प्रकाशित होते हैं। मैं अभी सुभद्दा के सामने ही खड़ा हूं। श्रद्धा बड़ा सेतु है, वह समय और स्थान की सभी दूरियों को जोड़ने में समर्थ है। वस्तुतः श्रद्धा के आयाम में समय और स्थान का अस्तित्व ही नहीं है। अश्रद्धालु पास होकर भी दूर और श्रद्धालु दूर होकर भी पास ही होते हैं। और तब उन्होंने ये गाथाएं कहीं
दूरे संतो पकासेंति हिमवंतो' व पब्बता। असंतेत्थ न दिस्संति रत्तिखित्ता यथासरा।। एकासनं एकसेय्यं एको चरमतंदितो। एकोदममत्तानं वनंते रमतो सिया।।
'संत दर होने पर भी हिमालय पर्वत की भांति प्रकाशते हैं और असंत पास होने पर भी रात में फेंके बाण की तरह दिखलायी नहीं देते।'
‘एक ही आसन रखने वाला, एक ही शय्या रखने वाला और अकेला विचरने वाला बने। और आलस्यरहित हो और अपने को दमन कर अकेला ही वनांत में रमण करे।'
पहले इस मीठी कहानी को समझें।
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