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________________ लोभ संसार है, गुरु से दूरी है घृणा आती है, हिंसा आती है; लोभ से सारा फैलाव होता है। फिर इन सबके साथ रहना पड़ता है-घृणा, हिंसा, ईर्ष्या, मत्सर, मद, अहंकार; और इनके साथ रहना दुखद है। एक तो लोभ का घर और ये संगी-साथी! 'इसलिए संसार के मार्ग का पथिक न बने और न दुखी हो।' संसार का अर्थ है, लोभ। लोभ के मार्ग का पथिक न बने। 'श्रद्धा और शील से संपन्न हो।' संदेह से कोई कभी सुख तक नहीं पहुंचा। श्रद्धा से पहुंचते लोग सुख तक। 'श्रद्धा और शील से संपन्न...।' और शील का अर्थ होता है, लोभ को छोड़कर जो जीवन में आचरण बचता है, उसका नाम शील है। लोभ के कारण जो आचरण है, वही कुशीलता है। लोभमुक्त जो आचरण है, वही शील है, उसका सौंदर्य अपूर्व है। __ अब तुम सोचो! अगर तुम ध्यान करने भी लोभ के कारण बैठे तो ध्यान शील नहीं है। यह बुद्ध की अनूठी व्याख्या है। बुद्ध कहते हैं, ध्यान का मजा लेने के लिए है। ध्यान में ही रस लेने के लिए बैठे। कोई लोभ नहीं है, कुछ और पाने की इच्छा नहीं है, ध्यान करने में ही सारा मजा है, ध्यान के बाहर कोई लक्ष्य नहीं है, कोई फलाकांक्षा नहीं है। ध्यान अपने में ही अपना फल है। मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, ध्यान करेंगे तो क्या मिलेगा? क्या, लाभ क्या होगा? उनकी समझ में ही यह बात नहीं आती कि ध्यान और लाभ का कोई संबंध नहीं है, क्योंकि लाभ का संबंध लोभ से होता है। लाभ तो लोभ का पुत्र है। ध्यान का लोभ से कोई संबंध नहीं है, लाभ से कोई संबंध नहीं है। ध्यान तो ऐसी चित्त की दशा है, जब तुम कुछ भी नहीं मांगते, न कुछ चाहते; न कहीं जाना चाहते, न कुछ होना चाहते। ध्यान तो परम संतुष्टि है, कहां लाभ? कहां रोगों की बात उठा रहे हो? कहां बीमारियां ला रहे हो? लाभ में तो तनाव है। फिर लाभ में चिंता है। फिर कम हुआ कि ज्यादा हुआ, तो अहंकार है या विषाद है। फिर तो उपद्रव शुरू हो जाते हैं। फिर और ज्यादा हो, फिर और ज्यादा हो, फिर और की दौड़ पैदा होती है। और की दौड़ ही तो मन है। फिर संसार का चाक घूमने लगता है। तो बुद्ध कहते हैं, 'श्रद्धा और शील से संपन्न, यश और भोग से मुक्त पुरुष।' कुछ भोग लूं, कुछ पा लूं, कुछ बन जाऊं—यश की आकांक्षा-कुछ बन जाऊं, कि राष्ट्रपति हो जाऊं, कि प्रधानमंत्री हो जाऊं, कि धनपति हो जाऊं, कि बड़ा प्रसिद्ध हो जाऊं। कुछ हो जाऊं-यश-और कुछ भोग लूं, इन दो आकांक्षाओं से ही, इन दो पैरों से ही सारा संसार चल रहा है। यश और भोग।। __चीन में एक कथा है। एक सम्राट अपने मंत्री के साथ महल पर खड़ा था और सागर में हजारों नौकाएं चल रही थीं, हजारों जहाज चल रहे थे। सम्राट ने अपने वजीर से कहा- वजीर बूढ़ा था—उस बूढ़े वजीर से कहा, देखते हैं, हजारों जहाज 139
SR No.002387
Book TitleDhammapada 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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