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________________ एस धम्मो सनंतनो ने कहा, कैसे अभी भीतर आऊ! और बहुत लोग हैं; मैं भीतर आ जाऊं तो औरों का क्या होगा? मैं रुकुंगा, मैं इस द्वार पर ही रुकूँगा, क्योंकि इस द्वार से मेरी आवाज दूसरों तक पहुंच सकेगी, भीतर आ गया तो फिर मेरी आवाज के पहुंचने का कोई उपाय नहीं। मैं अनंत काल तक रुकुंगा, जब और सारे लोग प्रविष्ट हो जाएंगे स्वर्ग में, गिनती कर लूंगा कि सभी प्रविष्ट हो गए, तब मैं आखिरी आदमी प्रविष्ट होऊंगा। यह कथा मीठी है। अपूर्व कथा है। महाकरुणा की कथा है। उस दिन लगा वज्जीपुत्त को कि बुद्ध की अलिप्तता में करुणा की रिक्तता नहीं है, महाकरुणा की लहरें हैं। उस दिन उसकी आंखें खुलीं। उस दिन उसने जाना कि वह किसके पास है। ऐसे वह वर्षों से साथ था, पर उस दिन सत्संग बना। सत्संग उसी दिन बनता है, जिस दिन गुरु की महिमा प्रगट होती है। जिस दिन गुरु का गुरुत्व प्रगट होता है, जिस दिन गुरु का गुरुत्वाकर्षण प्रगट होता है। जिस दिन गुरु की करुणा साफ होती है। उस दिन बुद्ध की प्रतिमा उसे दिखायी पड़ी। मिली होगी झलक एक अंधेरे में। देखा होगा बुद्ध का प्रकाशमान रूप। उस दिन बुद्ध का दीया ही महत्वपूर्ण न रहा, बुद्ध की भीतर की ज्योति से थोड़ा संबंध बना। उस दिन सत्संग हुआ। उस दिन बुद्ध की देह न रही मूल्यवान, बुद्ध की अंतरात्मा, बुद्ध के भीतर छिपा हुआ निराकार, निःशब्द। प्रेम में ही सत्संग बनता है। उस दिन उसे प्रमाण मिला कि बुद्ध का प्रेम है उसके प्रति। इस बुद्ध के प्रेम में ही उसके भीतर भी प्रेम जगा होगा-प्रेम ने प्रेम को पुकारा, प्रेम ने प्रेम के हाथ में हाथ दे दिया। उस दिन से नाच शुरू हुआ, उस दिन से उत्सव शुरू हुआ। उस दिन से उदासी न रही, उस दिन से एक अपूर्व आनंद की वर्षा होने लगी। इस वज्जीपुत्त भिक्षु से ही भगवान ने ये गाथाएं कही थीं'गलत प्रवज्या में रमण करना दुष्कर है।' गलत प्रवज्या यानी लोभ से लिया गया संन्यास। 'न रहने योग्य घर में रहना दुखद है।' अब यह जो तूने लोभ का घर बना लिया, यह रहने योग्य था ही नहीं। तूने घर का नाम बदल लिया, संसार की जगह संन्यास लिख दिया, मगर यह गलत घर गलत ही था, रहता तू उसी में रहा। यह लोभ के घर को गिरा दे। ____ 'असमान या प्रतिकूल लोगों के साथ रहना दुखद है। संसार के मार्ग का पथिक न बने और न दुखी हो।' तू लोभ को छोड़। लोभ के कारण गलत घर बना लिया, लोभ के कारण गलत लोगों से संबंध जोड़ लिया। लोभ के कारण असमान और प्रतिकूल लोगों के साथ संबंध जुड़ता है। लोभ के कारण ही शत्रुता पैदा होती है। लोभ के कारण ही तथाकथित मित्रता पैदा होती है। लोभ के कारण मोह बनता है, द्वेष बनता है; लोभ के कारण 138
SR No.002387
Book TitleDhammapada 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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