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एस धम्मो सनंतनो
वस्त्रों का मजा है, महलों का मजा है— मजा ही मजा है। तू यहां क्या कर रहा है, भिक्षापात्र लिए बैठा है, मूढ़ ! ये बाकी मूढ़ हैं, इनके साथ तू भी मूढ़ हो गया है। जरा देख, बुद्ध के साथ कितने लोग हैं ? थोड़े से, उंगलियों पर गिने जा सकें इतने लोग हैं। वहां देख संसार में कितने लोग हैं! ये सभी लोग नासमझ तो नहीं हो सकते। ये थोड़े से लोग ही बुद्धिमान हैं ! तू किस झंझट में पड़ गया ? तू किन की बातों में उलझ गया ? ठीक ही तो कहते थे लोग कि बुद्ध की बातों से बचना, सम्मोहित मत हो जाना, तूने सुना नहीं । सुन लेता, अच्छा था। अभी भी कुछ बिगड़ा नहीं है, अभी भी जिंदगी है। देर अभी भी नहीं हो गयी है, अभी भी भाग जा ।
आखिर उसने रात जागते-जागते तय ही कर लिया कि कल सुबह भाग जाऊंगा। हो जाऊंगा वापस संसारी ।
सभी का मन बार-बार संन्यास से भागता है और संसारी हो जाना चाहता है। मन की मौत है संन्यास ! अहंकार की मौत है संन्यास ! तो अहंकार और मन तुम्हें समझाएंगे। सावधान रहना, सावचेत रहना ।
लेकिन इसके पहले कि वह भाग जाता, भगवान ने उसे बुलाया ।
सदगुरु का यही तो अर्थ है कि तुम्हें भागने न दे; तुम जब भागने लगो तब रोके । सदगुरु का इतना ही तो प्रयोजन है। इसीलिए तो आदमी सदगुरु को खोजता है। अपने वश नहीं है बात, अपने वश तो तुम भाग ही जाओगे। कोई रोक न ले तो तुम रुक न पाओगे। कोई तुम्हारा हाथ न थाम ले तो तुम रुक न पाओगे ।
बुद्ध ने कभी उसे बुलाया नहीं था। लेकिन आज न बुलाएं तब तो फिर बहुत देर हो जाएगी। भाग गया तो भाग गया। फिर गिर जाएगा उसी पंक में, उसी कीचड़
कमल बनने का अवसर मिलने ही वाला था कि फिर कीचड़ में गिरने की तैयारी कर रहा है। देखते होंगे वज्जीपुत्त को, सोचते होंगे बहुत बार कि यह वस्तुतः संन्यासी तो अभी हुआ नहीं। प्रतीक्षा करते होंगे कि आज नहीं कल, कल नहीं परसों हो जाएगा। लेकिन अगर यह भाग गया तब तो सारी संभावनाएं समाप्त हो जाएंगी। यह तो आत्मघात में उत्सुक है, अब देर नहीं की जा सकती। तो बुद्ध ने उसे बुलाया। वह तो बहुत डरा भी। लेकिन सोचा- मैंने किसी को कहा भी तो नहीं।
लेकिन सदगुरु का अर्थ ही क्या होता है? सदगुरु का अर्थ इतना ही होता है कि जो शिष्य के भीतर घटता हो, वह गुरु को संवादित होता रहे - शिष्य कहे या न कहे । अक्सर तो ऐसा होता है कि शिष्य कुछ कहता है, वह तो कहता ही नहीं जो उसके भीतर होता है। अक्सर तो हम शिष्टाचार में ही झूठी बातें कहते रहते हैं। कुछ कहता है, कुछ कहना चाहता है, कुछ भीतर होता है। लेकिन गुरु इसकी फिकर नहीं करता है कि तुम क्या कहते हो, क्या नहीं कहते हो, गुरु तो वही देखता है, क्या है ?
शिष्य तो गुरु को भी धोखा देने की कोशिश करता है। यह भी स्वाभाविक है, क्षमा योग्य है। क्योंकि जो अपने को ही धोखा दे रहा है, वह गुरु को कैसे धोखा देने
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