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________________ एस धम्मो सनंतनो अष्टावक्र की महागीता में तुमने देखा न, जनक संसार में रहे, अष्टावक्र भी संसार में रहे, और परम सुख को उपलब्ध हुए । कृष्ण संसार में रहे और परम सुख को उपलब्ध हुए। मोहम्मद ने भी संन्यास नहीं लिया, संसार में ही रहे और परम सुख को उपलब्ध हुए। नानक और कबीर, दादू और रैदास परम सुख को उपलब्ध हुए । संसार में दुख नहीं है, दुख लोभ में है। इसका यह अर्थ हुआ कि लोभ ही संसार है। लोभ गया तो संसार गया । अब होता क्या है, संसार तो तुम छोड़ देते हो और लोभ बचा लेते हो। तो तुमने जहर तो बचा लिया, असली चीज तो बचा ली, भीतर का जहर तो बचा लिया, बोतल फेंक दी। बोतल फेंकने से कुछ भी न होगा । बोतल में जहर था भी नहीं। बोतल जहर थी भी नहीं । जहर तो बचा लिया, असली चीज तो बचा ली — लोभ – लोभ के कारण संन्यस्त हो गए, तो पचास साल नहीं, पचास जन्म तक संन्यासी रहो, कुछ भी न होगा। तुम बार-बार संसार में लौटोगे। लोभ दुख है, ऐसी प्रतीति हो जाए। और ऐसी प्रतीति का सबसे सुगम उपाय यही है कि किसी बुद्धपुरुष को अवसर दो, किसी बुद्धपुरुष के पास शांत होकर बैठो, सत्संग करो, किसी बुद्धपुरुष के पास तुम्हें ऐसा दिखायी पड़ जाए कि लोभ इस आदमी में नहीं है और परम सुख की वर्षा हो रही है। यह प्रतीति तुम्हारे भीतर साफ हो जाए, यह किरण एक बार उतर जाए, फिर संन्यास आएगा । फिर तुम संसार में रहो कि संसार के बाहर रहो, तुम कहीं भी रहो, सुख तुम्हारा छाया की तरह पीछा करेगा। लोभ से संग-साथ छूटना चाहिए। सारी साजिश लोभ की है। तो रिक्त ही आया था यह वज्जीपुत्त और रिक्त ही था । आ भी गया था और आया भी नहीं था। ऊपर-ऊपर से मौजूद था, बुद्ध के पीछे चलता था, लेकिन बुद्ध इसे अभी दिखायी ही नहीं पड़े थे, पीछे कैसे चलोगे ? पीछे तो उसके चल सकते हो जो दिखायी पड़ा हो । अंधे की तरह अंधेरे में टटोलता था । सामने रोशनी खड़ी थी, लेकिन आंख बंद हो तो रोशनी दिखायी नहीं पड़ती। सामने दीया जल रहा था, इस जले दीए से अपना बुझा दीया जलाया जा सकता था। लेकिन बुझा दीया जलाना हो तो जले दीए के करीब आना पड़े, बहुत करीब आना पड़े, इतने करीब आना पड़े कि जले दीए की लौ एक छलांग लगा सके और बुझे दीए की लौ पर सवार हो जाए। इसी सान्निध्य का नाम सत्संग है। इसी सान्निध्य के लिए सदियों से लोग बुद्धपुरुषों के पास रहे हैं, उनके निकट रहे हैं। जितने निकट हो जाएं! जितनी समीपता हो जाए! फिर आयी आश्विन पूर्णिमा की रात्रि । उस रात्रि वैशाली में महोत्सव मनाया जाता था। रागरंग का दिन था। लोग खूब नशा करते हैं, लोग खूब नाचते हैं, वेश्याएं सजकर निकलतीं, सारा नगर भोग में लीन होता। उस दिन दीन-दरिद्र भी अच्छे वस्त्र पहनते । वह रात्रि भोग की रात्रि थी । वैशाली रागरंग में डूबा था। नगर से संगीत और नृत्य की स्वर लहरियां 134
SR No.002387
Book TitleDhammapada 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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