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________________ लोभ संसार है, गुरु से दूरी है तो थोड़े दिनों में उसको फिर घबड़ाहट शुरू हो जाएगी, यह डर भी शुरू होगा कि हो सकता था मैं संसार में ही रहा आता, कम से कम कुछ तो था। शायद थोड़े दिन और मेहनत करता और थोड़ा धन मिल जाता तो सुख होता, और बड़े पद पर पहुंच जाता तो सुख होता, यह छोड़कर तो मैं झंझट में पड़ गया, न घर के रहे न घाट के। यह तो मेरी धोबी के गधे की हालत हो गयी। वह संसार गया और यहां कुछ मिलता नहीं मालूम पड़ता। . एक जैन मुनि ने मुझे कहा- उनकी उम्र सत्तर वर्ष है; सरल आदमी हैं; हिम्मतवर होंगे तभी मुझसे कह सके; बहुत हिम्मतवर नहीं हैं, इसलिए जब मुझसे कहा तो वहां जो और लोग बैठे थे, उनसे कहा, आप कृपा करके यहां से चले जाएं, मुझे कुछ निजी बात करनी है। वे उन्हीं के शिष्य थे जो बैठे थे। मैंने उनसे कहा, बैठे रहने दें, इनको भी कुछ लाभ होगा। उन्होंने कहा कि नहीं, इन्हें हटाएं। जब वे सब चले गए तब उन्होंने मुझसे कहा कि मुझे एक दुख की बात कहनी है और इनके सामने नहीं कह सकता था। क्या दुख की बात है? तो उन्होंने कहा, पचास साल हो गए मुझे मुनि हुए, जब बीस साल का था तब संन्यास लिया था, लेकिन सुख तो मिला नहीं। यह मैं किससे कहूं ? श्रावकों से तो कह नहीं सकता। इनको तो मैं यही समझाता हूं कि बड़ा सुख है, इनको तो मैं यही समझाता हूं कि तुम कहां दुख में पड़े हो, छोड़ो संसार! समझाता तो हूं, लेकिन भीतर डर भी लगता है कि मैं इनको क्या कह रहा हूं, सुख तो मुझे भी नहीं मिला! भीतर चिंता भी पैदा होती है कि मैं इन्हें कहीं किसी गलत मार्ग पर तो नहीं ले जा रहा हूं! क्योंकि जो मुझे नहीं मिला, वह इन्हें कैसे मिलेगा? आपसे निवेदन करता हूं कि मुझे सुख नहीं मिला। आया था सुख की तलाश में, इसी खोज में आया था। उस दिन उन जैन मुनि को मैंने यह वज्जीपुत्त की कथा कही थी। उनको मैंने कहा था, यह कथा सुनें; आप गलत कारणों से संन्यास ले लिए हैं। आप लोभ में संन्यास ले लिए हैं। आपका संन्यास संसार का ही एक रूप है। यह संन्यास है ही नहीं। पचास साल नहीं, पांच सौ साल बैठे रहो, कुछ भी न होगा। कंकड़ को दबा दो जमीन में और बैठे रहो पांच सौ साल, तो कहीं अंकुर थोड़े ही आने वाला है। बीज दबाना होगा। कितनी देर बैठे रहे, इससे थोड़े ही संबंध है। मौसम भी आएगा और चला जाएगा, वसंत भी आएगा और बीत जाएगा, वर्षा भी होगी और बीत जाएगी–कंकड़ में से अंकुरण थोड़े ही होता है! लोभ से कभी कोई सुख नहीं निकलता। - अब इसे समझना। संसार में दुख है, ऐसा मत समझो, लोभ में दुख है। लोभ के कारण संसार में दुख है। अगर संसार में रहते हुए भी लोभ छूट जाए तो संसार में भी दुख नहीं है। खयाल करना, संसार में दुख नहीं है, लोभ में दुख है। ऐसे लोग भी हुए हैं इस जगत में जो संसार में रहकर सुख को उपलब्ध हुए। 133
SR No.002387
Book TitleDhammapada 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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