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एस धम्मो सनंतनो
ऐसा ही एक भिक्षु था, वज्जीपुत्त उसका नाम था। वह रिक्त ही आया और रिक्त ही था, और वर्षों बुद्ध के पास हो गए थे रहते। सुनता था, जो बुद्ध कहते करता भी था, ऊपर-ऊपर ही लेकिन सारी बात थी। भीतर कहीं बुनियाद में ही भूल हो गयी थी, कहीं जड़ में चूक हो गयी थी। आया भी था, लेकिन आ नहीं पाया था। दूसरे कहते थे भगवान हैं, तो स्वीकार भी करता था, लेकिन बुद्ध के भगवान होने की प्रतीति निज नहीं थी। भीतर से नहीं हुई थी। लोभ के कारण दीक्षित हो गया होगा। यह सोचकर दीक्षित हो गया होगा कि शायद संन्यास में सुख हो। ___शायद आधार रहा होगा संन्यास का। प्रतीति नहीं थी, लोभ था। संन्यास में सुख है, ऐसा दिखायी नहीं पड़ा था; बुद्ध भी आनंदित हैं, ऐसा दिखायी नहीं पड़ा था; बुद्ध आनंद की बातें करते हैं, ऐसा सुनायी पड़ा था। बुद्ध आनंद की बातें करते हैं तो भीतर आनंद की आकांक्षा भी पैदा हुई होगी–मैं भी आनंद पाऊं। शायद बुद्ध कहते हैं, ठीक ही कहते होंगे। दुखी रहा होगा, जैसे सभी दुखी हैं, उस दुख के बीच बुद्ध की आनंद की बातों को सुनकर लोभ जगा होगा, वासना जगी होगी, महत्वाकांक्षा पैदा हुई होगी। इसी महत्वाकांक्षा के कारण दीक्षित हो गया था। __ महत्वाकांक्षा के कारण जो दीक्षित होता है उसकी दीक्षा बुनियाद से ही रुग्ण हो गयी। समझ के कारण संन्यास हो तो ही ठीक। महत्वाकांक्षा तो नासमझी है। महत्वाकांक्षा ही तो संसार है। संसार में दौड़ते हो कि धन मिल जाए तो सुख होगा, पद मिल जाए तो सुख होगा, फिर हारे-थके, न पद से मिलता सुख, न धन से मिलता सुख, दुख ही दुख बढ़ता जाता है। फिर एक दिन सुनते हो.किसी बुद्धपुरुष को कि इस सबको छोड़ दो तो सुख होगा, तो तुम सोचते हो-चलो इसको भी देख लें करके। ऐसे जिंदगी तो जा ही रही है, पद और धन में दौड़कर आधी तो गंवा ही दी है, कुछ बची है थोड़ी, शायद यह आदमी ठीक कहता हो, चलो एक मौका इसको भी दो। लेकिन तुम्हें इस आदमी में आनंद दिखायी नहीं पड़ा है।
इस भेद को खयाल में रखना। दो तरह के संन्यासी सदा होते रहे हैं। एक, लोभ के कारण। और दूसरा, जिसने बुद्ध को भर आंख देखा, पहचाना, उनकी सुगंध ली, उनके संगीत को सुना, और जिसके भीतर यह श्रद्धा जन्मी कि हां, यहां सुख है, इस आदमी में सुख नाच रहा है, ऐसी जिनको प्रतीति हुई, उस प्रतीति के कारण संन्यस्त हुए। जो प्रतीति के कारण संन्यस्त होता है, उसका बुद्ध से सीधा संबंध जुड़ गया। जो महत्वाकांक्षा के कारण संन्यस्त हुआ, उससे बुद्ध का कोई संबंध नहीं, वह अभी भी अपनी पुरानी ही दुनिया में है। वस्त्र बदल लिए, जीवन का ऊपरी ढांचा बदल लिया, घर-द्वार छोड़ दिया, पत्नी-बच्चे छोड़ दिए, भिक्षापात्र हाथ में ले लिया, मगर यह सब नाटक है। और थोड़े-बहुत दिनों में यह बात तो भीतर उठने ही लगेगी कि इतनी देर हो गयी, अभी तक सुख तो मिल नहीं रहा है! और नाटक से सुख मिलता नहीं; नाटक से मिल सकता नहीं।
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