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________________ लोभ संसार है, गुरु से दूरी है बुद्ध के खंडन से बुद्ध का क्या बिगड़ेगा ! बुद्ध का न कुछ बनेगा न कुछ बिगड़ेगा। लेकिन तुम अपने भविष्य को अंधकार में कर लोगे। जब बुद्धत्व होता ही नहीं, तो तुम कैसे किसी दिन बुद्ध हो पाओगे ! तुम अपने विश्वास को — जन्म सकता था, उसे न जन्मने दोगे। जो बीज अंकुर बन सकता था, तुम उसे मार डालोगे । यह तुम्हारा गर्भपात हो गया। तुमने अपने भविष्य को तोड़ दिया। तुम अपने अतीत से टंगे रह गए। जिन लोगों को बुद्ध को देखकर आह्लाद पैदा होता है, उनका अतीत समाप्त हुआ और भविष्य का प्रारंभ हुआ। उनके जीवन में नए के होने की संभावना आ गयी। संभावना ने द्वार खोला । विकास अब हो सकता है। तो अगर तुम आह्लादित न हो सको बुद्धों को देखकर, तो कम से कम दुखी तो मत ही होना। धन्यभागी हो, अगर आह्लादित हो सको; अगर उनके साथ नाच सको, गीत में डूब सको, तुम धन्यभागी हो ! अगर यह न हो सके, तो कम से कम दुखी तो मत होना। नाराज मत होना, आक्रामक मत हो जाना। क्योंकि बुद्धों का विरोध अपने ही हाथों अपना आत्मघात है, इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं । जब भी तुमने किसी भगवत्ता का विरोध किया है, तभी तुमने तय कर लिया कि अब तुम भगवान होने के लिए तैयार नहीं हो। तभी तुमने निर्णय ले लिया कि मैं जो हूं, बस यही रहूंगा, आगे बढ़ने की मेरी कोई आकांक्षा नहीं है। जो तुमसे आगे है, उसके साथ आगे बढ़ जाओ। उसे इनकारो मत, उसके साथ नाच लो। उसी नृत्य में तुम गतिमान हो जाओगे । तो जो देख सकते थे, आह्लादित थे। जो सुन सकते थे, मस्त हो रहे थे । और जो आह्लादित थे और मस्त हो रहे थे, उनके लिए स्वर्ग रोज-रोज अपने नए द्वार और अपने नए रहस्य खोल रहा था। यह यात्रा ऐसी है कि कभी चुकती नहीं । जितना बढ़ो, उतनी बढ़ती जाती है । जितना खोलो, उतने नए रहस्य की संभावनाएं पैदा होती जाती हैं। रहस्य का कोई अंत नहीं है। आध्यात्मिक यात्रा का प्रारंभ तो है, अंत नहीं। यह अनंत की यात्रा है, सो अनंत यात्रा है। पर सभी इतने भाग्यशाली नहीं हैं, कथा कहती है। आदमी अभागा भी है। बहुत तो थे जिन्होंने बुद्ध को सुना नहीं, बहुत थे जिन्होंने सुना तो स्वीकारा नहीं, और बहुत ऐसे भी थे कि सुन लिया, स्वीकार भी कर लिया और बुद्ध के पास आकर दीक्षित भी हो गए, संन्यस्त भी हो गए, तो भी बुद्ध के पास नहीं आ पाए। किसी गलत कारण से दीक्षा ले ली होगी। किसी गलत कारण से संन्यस्त हो गए होंगे। आदमी की गलती इतनी प्रगाढ़ है कि वह गलत कारणों से संसार में होता है, और फिर किसी दिन संन्यास भी लेता है तो गलत कारणों से संन्यास ले लेता । गलत कारणों से लिया संन्यास तो काम नहीं आता। 131
SR No.002387
Book TitleDhammapada 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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