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________________ लोभ संसार है, गुरु से दूरी है देखती है। जब तुम स्थूल से देखते हो तो स्थूल ही दिखायी पड़ता है। तुम जब किसी को देखते हो तो उसकी आत्मा तो दिखायी नहीं पड़ती, उसकी देह दिखायी पड़ती है। चमड़े की आंखें चमड़े की देह को देखने में समर्थ हैं। चमड़े के कान चमड़े के ओंठों से उठी आवाज को सुनने में समर्थ हैं। पर इस देह में छिपा भी कोई बैठा है। यह दीया खाली नहीं है, इसके भीतर एक ज्योति जल रही है। उस ज्योति को देखने के लिए ये आंखें काफी नहीं हैं। और एक शब्द तो है जो ओंठों से पैदा होता है, और एक शब्द है जो अहर्निश भीतर गूंज रहा है-ओंकार, परम नाद-वह तो कानों से सुनायी नहीं पड़ता। हम सूक्ष्म से ही सूक्ष्म को देख सकते हैं, यह गणित सीधा है। तो बुद्धों को देखने के लिए अगर तुम इन्हीं आंखों को लेकर गए जिन आंखों से तुमने जिंदगीभर और सब चीजें देखीं, तो ये आंखें काम न आएंगी। इन आंखों को हटाना पड़ेगा, नयी आंखें तलाशनी होंगी। क्योंकि बुद्ध में तुम शरीर को देखने तो नहीं गए हो। शरीर तो और भी बहुतों के पास हैं। बुद्ध के शब्द ही सुनने तो नहीं गए हो, शब्द तो सब तरफ काफी गुंजरित हो रहे हैं। शब्द और शरीर को देखने अगर तुम बुद्ध के पास गए तो तुम बुद्ध के पास गए ही नहीं। बुद्ध के पास तो तुम निःशब्द को देखने गए हो। अरूप को पकड़ने गए हो। निराकार की थोड़ी सी झलक मिल जाए, इसके लिए गए हो। उसके लिए जरूरी होगा कि तुम्हारे भीतर निराकार को पकड़ने वाली थोड़ी सी दृष्टि तो पैदा हो, जरा तो भीतर की आंख खुले। ध्यान के बिना बुद्ध को नहीं पहचाना जा सकता है। विचार से बुद्ध को नहीं पहचाना जा सकता है, ध्यान से ही पहचाना जा सकता है। विचार से संसार जाना जाता है, ध्यान से परमात्मा। ध्यान से भगवान पहचाना जाता है। इसे देखने को चाहिए सूक्ष्म दृष्टि, अंतर्दृष्टि, चमड़े की आंखों से यह दिखायी नहीं पड़ता। और यह संगीत ऐसा तो नहीं है कि बाहर के कानों से सुना जा सके। __यह अति सूक्ष्म तल पर बज रहा है। अहर्निश बज रहा है। प्रतिपल बज रहा है। लेकिन जब तुम भी इतने ही शांत अपने भीतर हो जाओगे जितनी शांति में बुद्ध का संगीत बज रहा है, तो मेल बैठेगा। बुद्ध जैसे थोड़े से होओगे तो बुद्ध से मेल बैठेगा। बुद्ध के रंग में थोड़े रंगोगे तो मेल बैठेगा। बुद्ध जैसे हुए बिना बुद्ध के साथ संबंध नहीं जुड़ता। थोड़ा सही, जरा सी मात्रा में सही, बुद्ध होंगे विराट सागर, तुम एक बूंद ही बन जाओ सागर की, तो भी चलेगा। एक छोटी सी बूंद भी सागर से मिलने में समर्थ हो जाती है। तुमने देखा, एक छोटी सी बूंद को सागर में ढुलका दो, तत्क्षण मिल जाती है। एक क्षण की भी देर नहीं लगती। और तुम एक बड़ी चट्टान को लाकर सागर में डाल दो-बड़ी हो तो भी क्या, चट्टान है, मिलती नहीं। बूंद छोटी है तो भी मिल जाती है, बड़ी चट्टान भी नहीं मिलती। बड़ी बुद्धि लेकर गए तुम बुद्ध के पास तो भी 129
SR No.002387
Book TitleDhammapada 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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