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लोभ संसार है, गुरु से दूरी है
भोला-भाला आदमी भी समझ लेगा, और मनुष्यों जैसा महापंडित भी हो तो चूक जाएगा। सरलता बुद्ध को देखने का उपाय है। सरलता के लिए सुगम है।
शास्त्र कहते हैं कि झरने जो बहने बंद हो गए थे, फिर बहने लगे।
बुद्धत्व का अर्थ होता है, जिसकी जीवन ऊर्जा अपने परिपूर्ण प्रवाह में आ गयी, जिसकी जीवन ऊर्जा अब अवरुद्ध नहीं है, बह रही है। जो बहता है, उसके साथ-साथ दूसरों में भी बहने की संवेदनशीलता पैदा होती है। नाचते आदमी के साथ नाचने का मन होने लगता है, हंसते आदमी के साथ हंसी फूटने लगती है, रोते आदमी के साथ उदासी आ जाती है। बुद्ध तो प्रवाहशील हैं। सरित प्रवाह है। उनकी धारा तो अब किसी अवरोध को नहीं मानती, किसी चट्टान को स्वीकार नहीं करती। अब उन पर न कोई पक्षपात हैं, न कोई बांध हैं, अब परम स्वतंत्रता उनके जीवन की स्थिति है। जैसे नदी बही जाती है परिपूर्ण स्वतंत्रता से, ऐसा बुद्ध का चैतन्य भाव है। ___ इस भाव के लिए प्रतीक है कि झरने जो सूख गए थे, वे भी बुद्ध की मौजूदगी में फिर बहने लगे। उनके भीतर भी बहने का स्वप्न जगा। बहना ही भूल गए थे, याद ही चली गयी थी कि हम बहने के लिए बने हैं, बुद्ध का बहाव देखकर उनकी भी सोयी आत्मा जग गयी।
तथ्य मत मान लेना। तथ्य नहीं है इन कथाओं में। इन कथाओं में सत्य है, तथ्य बिलकुल नहीं। तथ्य से इनका कोई लेना-देना नहीं है। इनके इशारे जीवन के महत्वपूर्ण सिद्धांतों की तरफ हैं।
ऐसी ही तो दशा मनुष्य की है। उसके भीतर सब धाराएं रुक गयी हैं। न प्रेम बहता, न दया बहती, न करुणा बहती, न बोध बहता, न समाधि बहती, कुछ भी नहीं बहता। तुम अवरुद्ध एक तलैया हो गए हो, सड़ते हो। तुम्हारा जीवन एक बहाव नहीं है। तुम बहुत बंध गए हो। इस बंधी हुई अवस्था को ही बुद्ध ने गृहस्थ होना कहा है। और जो बहने लगा, उसको ही संन्यस्त कहा है।
तो प्रतीक प्यारा है कि सूखे झरने बहने लगे। जिनकी जीवनधारा सूख गयी थी, जो भूल ही गए थे बहने का पाठ, जो भाषा ही भूल बैठे थे बहने की, और जो छोटे-छोटे डबरों में कैद हो गए थे, उनके भीतर भी सिंहनाद उठा। बुद्ध को बहते देखकर उनको भी याद आयी, भूली-बिसरी याद आयी, अपने होने का ढंग समझ में आया। बुद्ध के बहाव में जो नृत्य उन्हें दिखायी पड़ा, उन्हें लगा-काश, हम भी ऐसे बहते! हम भी ऐसे बह सकते हैं। अगर एक मनुष्य बह सकता है तो हम क्यों नहीं बह सकते? उनकी सोयी आत्मा को चुनौती मिली, वे भी बहने लगे थे।
और जिनकी-जीवन वीणा अछुती पड़ी थी...। जिस पर अंगुलियों ने कभी कोई संगीत रचा ही न था, वीणा के तार धूल से जम गए होंगे, पोंछा ही न था वीणा को, और कभी वीणा को पुकारा भी नहीं था, सजाया-संवारा भी नहीं था, और वीणा में जो सोया है संगीत उसे कभी जगाया भी
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