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________________ लोभ संसार है, गुरु से दूरी है फिर भगवान ने जब उससे उसके सारे मन की कथा कही, तो उसे भरोसा ही न आया। एक-एक बात जो उसने सोची थी, और एक-एक स्वप्न जो उसने देखा था, और एक - एक उत्तेजना जो शैतान ने उसे दी थी, और उसका यह निर्णय कि वह भागकर जा रहा है आज, सभी भगवान ने उसे कहा। उस दिन उसकी आंखें खुलीं। उस दिन उसने जाना कि वह किसके पास है। ऐसे तो वह वर्षों से था बुद्ध के पास, पर उस दिन ही सत्संग बना। उस दिन ही गुरु मिला। उस दिन से उदासी न रही। उस दिन से उत्सव शुरू हुआ। उस दिन से बुद्ध की वीणा के स्वर उसे सुनायी पड़ने लगे। उस दिन संसार झूठा हुआ, संन्यास सत्य हुआ । इस वज्जीपुत्त भिक्षु से ही भगवान ने ये गाथाएं कही थीं दुष्पब्बज्जं दुरभिरमं दुरवासा घरा दुखा । दुक्खो समानसंवासो दुक्खानुपतितद्धगू। तस्मा न च अर्द्धगू सिया न च दुक्खानुपतितो सिया ।। सद्धो सीलेन संपन्नो यसोभोगसमप्पितो। यं यं पदेसं भजति तत्थ तत्थेव पूजितो ।। ‘गलत प्रवज्या में रमण करना दुष्कर है। न रहने योग्य घर में रहना दुखद है। असमान या प्रतिकूल लोगों के साथ रहना दुखद है। इसलिए संसार के मार्ग का पथिक न बने और न दुखी हो ।' 'श्रद्धा और शील से संपन्न तथा यश और भोग से मुक्त पुरुष जहां कहीं जाता है, सर्वत्र पूजित होता है । ' इसके पहले कि हम गाथाओं में उतरें, तुम इस प्यारी कहानी को ठीक से समझ लेना। यह दृश्य तुम्हारे हृदय पर अंकित हो जाए कि मिटे न, बहुत काम पड़ेगा । ऐसी दशा बहुतों की है। ऐसी दशा यहां भी बहुतों की है। ऐसी दशा सदा ही बहुतों की है। पहली बात, गौतम बुद्ध जैसे व्यक्ति के पास होकर भी तुम उन्हें देख पाओगे, ऐसी कोई अनिवार्यता नहीं । सूर्य निकला हो, तो भी तुम्हें प्रकाश दिखायी ही पड़े, ऐसी कोई अनिवार्यता नहीं । तुम अंधे हो सकते हो। या न सही अंधे, आंख वाले होओ, लेकिन आंख बंद किए खड़े हो सकते हो। तो प्रकाश तुम्हें दिखायी न पड़ेगा । प्रकाश है, लेकिन प्रकाश देखने के लिए तुम्हारी आंख खुली होनी चाहिए । बुद्धों के पास भी लोग बुद्धों को चूक जाते हैं। जिनों के पास भी लोग जिनों को चूक जाते हैं। कृष्ण और क्राइस्ट के पास रहकर भी लोग उन्हें नहीं पहचान पाए हैं। और जब नहीं पहचान पाते, तो स्वभावतः उनकी सहज निष्पत्ति यही होती है कि भगवान होंगे ही नहीं, बुद्ध होंगे ही नहीं, अन्यथा हम आंख वालों को दिखायी क्यों 125
SR No.002387
Book TitleDhammapada 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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