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________________ एस धम्मो सनंतनो प्रथम दृश्य __ भगवान वैशाली में विहरते थे। उनके सान्निध्य में, कहते थे, सूखे वृक्ष पुनः हरे हो गए। और जो जीवन-वीणाएं सूनी पड़ी थीं, उनमें संगीत जाग पड़ा। जो झरने बहने बंद हो गए थे, वे पुनः बहने लगे। मरुस्थल मरूद्यानों में बदल गए। पर इसे देखने को तो आंखें चाहिए। सूक्ष्म आंखें चाहिए, अंतर्दृष्टि चाहिए। चमड़ी की आंखों से तो यह दिखायी नहीं पड़ता है। और यह संगीत ऐसा तो नहीं है कि बाहर के कानों से सुना जा सके। यह परमोत्सव है, परम भोग है, यह परमात्म-दशा है। समाधि ही सुन पाती है इस स्वर को। समाधि ही देख पाती है इस उत्सव को। ___ तो जो देख सकते थे वे आह्लादित थे। जो सुन सकते थे वे मस्त हो रहे थे। और जो आह्लादित थे और मस्त हो रहे थे, उनके लिए स्वर्ग रोज-रोज अपने नए द्वार खोल रहा था। पर सभी तो इतने भाग्यशाली नहीं हैं। कुछ ऐसे भी थे जिन्हें न कुछ दिखायी पड़ता था, न कुछ सुनायी ही पड़ता था। वे रिक्त आए थे और रिक्त ही थे। वे आ भी गए थे और आए भी नहीं थे। ऐसे अभागों में ही एक था-वज्जीपुत्त भिक्षु। आश्विन पूर्णिमा की रात्रि थी, वैशाली रागरंग में डूबा था, नगर से संगीत और नृत्य की स्वर-लहरियां भगवान के विहार-स्थल महावन तक आ रही थीं। वह भिक्षु भगवान के संगीत को तो नहीं सुन पाया था, उसने भगवान के अंतस्तल से उठते हुए प्रकाश को तो अब तक नहीं देखा था, लेकिन राजधानी में जले हुए दीए उसे दिखायी पड़ रहे थे, और राजधानी में होता रागरंग और उससे आती स्वर-लहरियां उसे सुनायी पड़ रही थीं। वह भिक्षु गाजे-बाजों की ये आवाजें सुन अति उदास हो गया। उसे लगा कि मैं भिक्षु हो व्यर्थ ही जीवन गंवा रहा हूं। सुख तो संसार में है। देखो, लोग कैसे मजे में हैं! राजधानी उत्सव मना रही है, मैं यहां पड़ा मूढ़ क्या कर रहा हूं? मैं भी संन्यास ले कैसी उलझन में पड़ गया! ऐसा अवसर शैतान-मार-तो कभी चूकता नहीं, सो मार ने उसे भी खूब उकसाया, खूब सब्जबाग दिखाए, मोहक सपनों को खड़ा किया और वह भिक्षु सोचने लगा-कल सुबह ही, अब बहुत हो चुका, कल सुबह ही भाग जाऊंगा छोड़कर यह संन्यास। संसार ही सत्य है। यहां मैं व्यर्थ ही उलझा हूं, तड़फ रहा हूं। यहां मैं कर क्या रहा हूं! यहां रखा भी क्या है! लेकिन इसके पहले कि वह भाग जाता, भगवान ने उसे बुलाया। सुबह वह भागने की तैयारियां ही कर रहा था कि भगवान का संदेश आया। वह तो बहुत चौंका। यह पहला मौका था जब भगवान ने उसे बुलाया था। डरा भी, मन में शंका भी उठी। लेकिन उसने सोचा-मैंने तो किसी को बात कही भी नहीं है, मेरे अतिरिक्त कोई जानता भी नहीं कि मैं भाग रहा हूं। शायद किसी और कारण से बुलाया होगा। 124
SR No.002387
Book TitleDhammapada 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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