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________________ एस धम्मो सनंतनो ये फालत ऐरे-गैरे-नत्थू-खैरे, ये मेरे पैर पकड़कर चले आ रहे हैं। उसे बड़ा क्रोध भी आने लगा, उसे बड़ी अकड़ भी आने लगी। आखिर जब ठीक स्वर्ग के द्वार पर पहुंच गयी तो उसने कहा कि हटो, छोड़ो मेरे पैर, मूली मेरी है। बात इतनी बढ़ गयी कि वह भूल ही गयी, विवाद में हाथ छोड़ दिए मूली से और कहा, मूली मेरी है। पूरी कतार जमीन पर गिर गयी। वह मेरे का भाव स्वर्ग के द्वार से वापस ले आया। __ अगर त्याग किया है तो त्याग का अर्थ यह होता है कि तुम समझ गए कि यहां क्या मेरा, क्या तेरा? तब तो छोटी बात है। ऐसा समझो, इस छोटी सी घटना को सुनो, बात है चैतन्य महाप्रभु की। गृहस्थ थे तब की बात है। नाम था उनका निमाई पंडित। एक सुबह नौका में जा रहे थे, हाथ में एक न्याय का हस्तलिखित ग्रंथ था और साथ थे सहपाठी रघुनाथ पंडित। रघुनाथ ने आग्रह किया तो चैतन्य प्रभु अपना ग्रंथ उन्हें पढ़कर सुनाने लगे। ज्यों-ज्यों वे ग्रंथ सुनाते जाते, तैसे-तैसे रघुनाथ पंडित का दुख बढ़ता जाता और चित्त उदास होता जाता। अंत में रघुनाथ पंडित रो पड़े। निमाई ने कारण पूछा, तो उन्होंने कहा, क्या बताऊं, मैंने भी बड़े परिश्रम से एक ग्रंथ लिखा है—दिधिति। समझता था कि यह ग्रंथ न्याय के ग्रंथों में सबसे प्रधान होगा, पर तुम्हारे इस ग्रंथ के आगे उसे कौन पूछेगा? इसलिए मैं दुखी हो गया हूं। तुम्हारा ग्रंथ निश्चित उससे श्रेष्ठ है। मेरे वर्षों की मेहनत व्यर्थ गयी। निमाई हंसकर बोले, बस, इतनी छोटी सी बात! इतनी सी छोटी बात के लिए इतना दुख! यह लो, और उन्होंने पोथी को जल में फेंक दिया। एक क्षण न लगा, पोथी जल में डूब गयी। पोथी के पन्ने जल में बिखर गए। रघुनाथ ने कहा, यह तुमने क्या किया? इतने महान ग्रंथ को ऐसे फेंक दिया! निमाई ने कहा, महान कुछ भी नहीं, सब शब्दों का जाल है। बड़ा इसका कोई मूल्य नहीं है। दो कौड़ी की बात है। तुम सुखी हो सको, इसके मुकाबले यह कुछ भी नहीं। तुम्हारे ओंठ पर मुस्कुराहट आ सके, तो ऐसे हजार ग्रंथ नदी में फेंक दूं। निमाई ने कहा, छोटी सी बात! जब तुम जीवन के सत्यों को ठीक-ठीक पहचानते हो तो त्याग बड़ी छोटी बात है। जब जीवन के सत्यों को ठीक-ठीक नहीं पहचानते तो बड़ी कठिन बात है, बड़ी कठिन, और बड़ी बड़ी! तुम उसे खूब गुणनफल करके देखते हो। एक रुपया दान करोगे तो हजार कहोगे। कुछ छोटा-मोटा दान कर दोगे तो धीरे-धीरे बढ़ाते जाओगे। तुमको पता ही नहीं चलेगा कि तुम उसे बढ़ाते जा रहे हो। हर बार जब तुम बताओगे तो कुछ ज्यादा बताओगे, और ज्यादा बताओगे, बात बढ़ती चली जाएगी। तुम बड़ा करके बताना चाहते हो। इस जगत में कोई भी वस्तु मूल्यवान नहीं है, ऐसी प्रतीति का नाम त्याग। त्याग 114
SR No.002387
Book TitleDhammapada 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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