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________________ मातरम् पितरम् हत्वा दर पर्त; जैसे कि प्याज होती है, एक पर्त के ऊपर दूसरी पर्त जमती चली गयी है। अब तो तुम खो ही गए हो भीड़-भड़क्के में। अब तो तुम्हें पता ही नहीं चलता कि तुम कौन हो। अब तो तुम्हें पूछना पड़ता है कि मैं कौन हूं। वर्षों चेष्टा करोगे कि मैं कौन हूं, तब कहीं तुम्हें उत्तर आएगा। क्योंकि जहां से उत्तर आ सकता है उसमें और तुम्हारे बीच इतना अंतराल हो गया है, और इतनी दीवालें, और इतने पर्दे, और इतनी अड़चनें, इतनी बाधाएं हो गयी हैं। धर्म का अर्थ है, इन बाधाओं को कैसे हटाएं। इसका यह अर्थ नहीं होता कि हम बच्चे को इस तरह पाल सकते हैं कि उस पर कोई पर्दे ही न पड़ें। यह असंभव है। समझना इसे। मेरी बात सुनकर बहुत बार ऐसा लग जाता है, तो फिर हम बच्चों को कोई संस्कार क्यों दें? संस्कार देने से बचा नहीं जा सकता। संस्कार देने ही पड़ेंगे। अनिवार्य बुराई है। नेसेसरी इविल। आखिर बच्चा आग की तरफ जा रहा होगा तो रोकना ही पड़ेगा कि मत जाओ। संस्कार मिलेगा। अंधेरी रात में बच्चा बाहर जाना चाहेगा तो मां को कहना पड़ेगा कि मत जाओ, खतरा है; भय पैदा होगा, निर्भय पर सीमा बन जाएगी भय की। जहर घर में रखा होगा तो दूर रखना पड़ेगा, बच्चे के हाथ तक न पहुंच जाए। हाथ पहुंच जाए तो झटके से छीन लेना होगा। बच्चा अपने को नुकसान पहुंचा सकता है, दूसरे को नुकसान पहुंचा सकता है। ये सारी बातें रुकावट डालनी होंगी। बच्चे को संस्कार देने होंगे। बच्चे को अनुशासन देना होगा। हर कहीं खड़े होकर मल-मूत्र विसर्जन करे तो रोकना होगा; समय पर, ठीक स्थान पर मल-मूत्र विसर्जन करे, इसकी शिक्षा देनी होगी, टायलेट ट्रेनिंग देनी होगी। समय पर भोजन मांगे, दिनभर भोजन न करता रहे; हर घड़ी, हर कहीं, हर कोई काम न करने लगे; एक विवेक देना होगा। इससे बचा नहीं जा सकता। यह करना ही होगा। कम-ज्यादा, ऐसा-वैसा, लेकिन यह होगा ही। यह अनिवार्य है। और धर्म जो कहता है, वह भी बात महत्वपूर्ण है। जब यह सारी की सारी व्यवस्था निर्मित हो जाएगी, तो एक दिन इसे तोड़ना भी इतना ही जरूरी है। फिर तोड़ा जा सकता है। जिसके भीतर अनुशासन आ गया, उसे अनुशासन से मुक्त किया जा सकता है। इस बात को समझना, इसके विरोधाभास को समझना। वस्तुतः उसे ही अनुशासन से मुक्त किया जा सकता है, जिसके भीतर अनुशासन आ गया। जब तक नहीं आया है, तब तक तो मुक्त नहीं किया जा सकता है। जिसके भीतर समझ आ गयी, उसे फिर संस्कार से मुक्त किया जा सकता है। इसलिए हमने इस देश में संन्यासी को सारे संस्कारों से मुक्त रखा। हमने उसके ऊपर वर्ण की बाधा नहीं मानी, आश्रम की बाधा नहीं मानी, संन्यासी होते ही समाज की सारी व्यवस्था के बाहर माना। सारी व्यवस्था का अतिक्रमण कर गया। जो संन्यस्त हो गया, उस पर अब कोई रुकावट नहीं, कोई बाधा नहीं, उसकी स्वतंत्रता 105
SR No.002387
Book TitleDhammapada 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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