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एस धम्मो सनंतनो
खड़ी करते हैं। मन की एक दीवाल बनाते हैं।
ध्यान रखना, मन समाज द्वारा निर्मित होता है। आत्मा तुम्हारी है, शरीर प्रकृति का है और मन समाज का है । मन बिलकुल उधार और बासी चीज है। शरीर भी सुंदर है, क्योंकि प्रकृति का सौंदर्य है उसमें - झरनों की कलकल है तुम्हारे खून में, मिट्टी की सुगंध है तुम्हारी देह में, जैसे आकाश के तारे हैं ऐसी ऊर्जा है तुम्हारे प्राण में; तुम्हारा शरीर निसर्ग से आया, वह प्राकृतिक है । वह प्रकृति है । तुम्हारी आत्मा परमात्मा से आयी । दोनों सुंदर हैं, दोनों अपूर्व रूप से सुंदर हैं। दोनों के बीच में एक दीवाल है मन की। मन समाज द्वारा निर्मित है। मन तुम्हारे शरीर को भी दबाता है और तुम्हारी प्रकृति को धीरे-धीरे विकृति बना देता है । मन तुम्हारी आत्मा को भी दबाता है, घेरता है और कारागृह में बंद कर देता है।
मन के दो काम हैं - शरीर की प्रकृति को नियंत्रित कर लेना और आत्मा की अबाध स्वतंत्रता को कारागृह में डाल देना ।
सारे धर्म का इतना ही सूत्र है, मन से कैसे मुक्त हो जाएं। जो समाज ने किया है, धर्म उसे नकारता है । बुद्धपुरुषों का इतना ही उपयोग है, सदगुरु के पास होने का इतना ही प्रयोजन है कि जो समाज ने तुम्हारे साथ कर दिया है, सदगुरु उसे धीरे-धीरे हटाता है, तुम्हें सहयोग देता है कि तुम हटा दो। समाज ने जो दीवाल तुम्हारे तरफ चुन दी है मन की, विचारों की, उसकी एक-एक ईंट खिसका देता है ।
जिस दिन मन विसर्जित हो जाता है, उसी दिन समाधि लग जाती है। जिस दिन शरीर नैसर्गिक और आत्मा स्वतंत्र, इन दोनों के मध्य समाधि का स्वर उठता है। यह जो चीन की दीवाल है- - मन- यह दोनों को अलग किए है। अ-मन समाधि का सूत्र है, नो - माइंड, उन्मन । मन से मुक्त हो जाना ध्यान का अर्थ है।
तो सारे धर्म की आधारशिला एक ही है कि समाज ने जो किया है, उसे कैसे अनकिया किया जा सके। तुम फिर से कैसे उस जगह पहुंच जाओ जहां तुम पैदा हुए थे। तुम्हारी आंखें फिर कैसे उसी तरह निर्धूम और निर्धूल हो जाएं, जैसी जब तुम पहली दफा मां के पेट से जन्मे थे और आंखें खोली थीं उस क्षण थीं। कोई पर्दा न था। तुम्हारे कान फिर कैसे वैसे ही खुल जाएं जैसे पहली दफा जब तुमने ध्वनि सुनी थी तब थे। तुम्हारा स्पर्श कैसे फिर उतना ही संवेदनशील हो जाए जैसा पहले दिन था जब तुम जन्मे थे। तुम फिर कैसे उसी तरह मुक्त सांस लेने लगो, जैसी तुमने पहली सांस ली थी। तुम फिर कैसे वैसे ही हंसो - क्वांरे – तुम फिर कैसे वैसे ही रोओ-क्वांरे - कैसे तुम क्वांरे हो जाओ, कैसे समाज ने तुम पर जो-जो थोपा है वह फिर से हटा लिया जाए।
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समाज के इस आरोपण में माता-पिता ने बहुत बड़ा हाथ बंटाया है, क्योंकि वे तुम्हारा पहला समाज थे । फिर तुम्हारे भाई-बहन थे, फिर तुम्हारे पड़ोसी थे, फिर स्कूल था, फिर कालेज था, फिर युनिवर्सिटी थी, फिर यह सारा विस्तार था - -पर्त
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