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एस धम्मो सनंतनो
है, किस दीवाल पर कम पहरा रहता है, किस दीवाल से मिलिटरी बहुत दूर है, कौन से समय पर पहरा बदलता है, कब रात पहरेदार सो जाते हैं ! यह तुम तो पता न लगा सकोगे, क्योंकि दीवाल के बाहर जो हो रहा है, वह दीवाल के बाहर जो है वही जान सकता है। तो अगर तुम्हारा दीवाल के बाहर से किसी से संबंध हो जाए...।
फिर अगर दीवाल के बाहर जिससे तुम्हारा संबंध हो वह ऐसा हो, जो खुद भी कभी इस कारागृह में कैदी रह चुका हो, तो और भी लाभ है। क्योंकि उसे भीतर का भी पता है-कहां से द्वार हैं, कहां से दरवाजे हैं, कहां से खिड़कियां हैं, कहां से सींकचे काटे जा सकते हैं, किस पहरेदार को रिश्वत खिलायी जा सकती है, कौन सा जेलर कमजोर है, कौन सा जेलर रात में शराब पीकर मस्त हो जाता है, भूल-भाल जाता है!
बुद्ध का अर्थ है ऐसा व्यक्ति, जो इस संसार में बंद. था-ठीक तुम जैसा—अब बाहर हो गया है, उससे साथ जोड़ लो। संघ से संबंध है, उन लोगों से साथ जोड़ लो जो अभी जेल में तुम्हारे साथ बंद हैं। उनके साथ इकट्ठे हो जाओ।
मुझसे लोग पूछते हैं कि आप संन्यास देकर गैरिक लोगों की जमात क्यों पैदा कर रहे हैं?
यह संघ है। अकेले-अकेले आदमी कमजोर है, संग-साथ मजबूत हो जाता है। जो एक न कर सके, दस कर सकेंगे; जो दस न कर सकें, सौ कर सकेंगे। जो सौ न कर सकें, हजार कर सकेंगे। जैसे-जैसे तुम संगठित होते चले जाते हो, तुम्हारी अपनी कमजोरियां तुम्हारे संगी-साथियों के बल के साथ संयुक्त हो जाती हैं, तुम ज्यादा बलवान हो जाते हो। तब एक बड़ी लहर पैदा होती है, जिस पर सवार हो जाना आसान है।
तो बुद्ध ने कहा, बुद्ध का स्मरण जो रखता है, संघ का स्मरण जो रखता है, और दोनों के पार जो धर्म है, उसका स्मरण जो रखता है। जिन्होंने पा लिया, उनका स्मरण; जो पाने चल पड़े हैं, उनका स्मरण; और जिसे पाने चले हैं, और जो पा लिया गया है, उसका स्मरण—ये तीन महत्वपूर्ण स्मृतियां हैं। इनको बुद्ध ने त्रिरत्न कहा है, त्रिशरण कहा है। ये बुद्ध-धर्म के तीन रत्न हैं—बुद्धं शरणं गच्छामि, संघं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि।
सुप्पबुद्धं पबुज्झति सदा गोतमसावका। येसं दिवा च रत्तो च निच्चं कायगता सति ।। सुष्पबुद्धं पबुझंति सदा गोतमसावका। येसं दिवा च रत्तो च अहिंसाय रतो मनो।। सुप्पबुद्धं पबुझंति सदा गोतमसावका। येसं दिवा च रत्तो च भावनाय रतो मनो।।
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