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________________ मन की मृत्यु का नाम मौन कि जो इन्हें अनुभव में हुआ है, वह अंटता नहीं। शब्द में आते-आते ओछा हो जाता है, छोटा हो जाता है, विकृत हो जाता है। ___ तुमने प्रेम जाना, कोई तुमसे कहे, कह दो, क्या है? तो तुम मुश्किल में पड़ जाओगे। तुम गए सुबह, तुमने सूरज को ऊगते देखा, पक्षियों को गीत गाते देखा, सुबह की ताज़ी हवा में तुम भी गुनगुनाए, तुम भी मगन हुए, मस्त हुए। फिर तुम घर आए और किसी ने पूछा कि कहो, कैसा था सूर्योदय ? क्या कहोगे? और जो भी तुम कहोगे, क्या तुम सोचते हो कि तुम कह पाओगे जो तुमने जाना था उस सुबह की घड़ी में? उस प्यारी घड़ी में जो हुआ था, वह जो मधुर रस बहा था, वे जो किरणें तुम्हारे चारों तरफ नाच गयी थीं, वह जो परमात्मा किसी बड़े अपूर्व रूप से तुम्हारे चारों तरफ खड़ा हो गया था, कह पाओगे उसे? __ और तुम्हारा बेटा तुमसे पूछने लगे कि चलो, मैं तो गया नहीं था, आप मेरी कापी पर बनाकर बता दें, सर्योदय कैसा था। तो बना सकोगे? सर्य बना दोगे, गोल गोला बना दोगे, किरणें बना दोगे, पहाड़ियां बना दोगे, झील बना दोगे, मगर क्या तुम सोचते हो, इस कागज पर बनी तस्वीर का कुछ भी संबंध है उससे जो तुमने देखा था? कुछ भी संबंध नहीं है। यह मुर्दा तस्वीर है, वह जीवंत था। वह विराट था, यह छोटे से पन्ने पर समा गया। और यह उसका बहुत छुद्र अंश है। वह इससे करोड़-करोड़ गुना था। उसके विस्तार को कैसे कागज पर लाओगे। . छोड़ो कागज की, अब तुम्हारे पास बेहतर साधन हैं, तुम एक कैमरा लेकर जा सकते हो। तस्वीर उतार लेते हो। लेकिन तस्वीर भी कहां तस्वीर हो पाती है! तस्वीर में भी कहां बात बनती है। तो जिसके पास भीतर का अनुभव है, उसको अहंकार तो पैदा होता ही नहीं। उसको तो हर बार हार हाथ लगती है। हर बार गीत गाता है और हर बार पाता है कि जो गाना था, पीछे छूट गया। शब्द के तीर तो चले गए, जो शब्दों के तीर पर रखना था, चढ़ाना था, वह पीछे पड़ा रह गया। हर बार चेष्टा करता है, संदेश भेजता है, संदेश चला जाता है, लेकिन मूल छूट जाता है। हर बार ऐसा होता। तो जो अनुभव किया है, उसे शब्द से अहंकार नहीं बढ़ता। लेकिन जिसने अनुभव नहीं किया है, उसे शब्द बोल-बोलकर बड़ा अहंकार बढ़ता है। तो हत्थक बड़े अहंकारी थे। फिर तर्क में सच-झूठ भी न देखते थे। तर्क में सच-झूठ होता भी नहीं। जब विजय ही लक्ष्य हो, तो क्या सच, क्या झूठ? विजय जब लक्ष्य हो और झूठ से विजय मिलती हो, तो झूठ ही सच मालूम होता है। खयाल रखना, कहते तो वह थे कि मैं सत्य का खोजी हूं, लेकिन मूलतः विजय के खोजी थे। तुम भी जब किसी से विवाद करते हो तो सत्य की खोज में करते हो? कि सिर्फ एक आकांक्षा जीत लेने की? दुनिया में दो तरह के लोग हैं। एक वे, जो सत्य को अपने पीछे चलाना चाहते 77
SR No.002386
Book TitleDhammapada 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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