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________________ क्षण है द्वार प्रभु का तुम बंधे हो। ___ तो बुद्ध ने कहा है, जो तृष्णा से छूट गया, वह संसार से मुक्त हो गया। संसार से मुक्त नहीं होना है, तृष्णा से मुक्त होना है। एक बड़ी महत्वपूर्ण झेन कथा साऊ सिन को समाधि उपलब्ध हो गयी थी। वह अपने गुरु हाऊ नान से मिलने गया। और जैसे ही वह चरणस्पर्श करने को था कि उसके गुरु ने कहा, रुको! रुको! अब तुम मेरे ही कक्ष में आ गए हो। स्टाप, नाव यू हैव कम इनटू माइ रूम। साऊ सिन ने कहा, मगर अगर यह शांति और सरलता ही सत्य-उपलब्धि थी, तो फिर आपने वे सारे व्यर्थ प्रयत्न और प्रयास करने को मुझे क्यों कहा था? हाऊ नान हंसने लगा—गुरु हंसने लगा—उसने कहा, ताकि तुम थक जाओ और प्रयास छोड़ दो। कुछ पाना थोड़े ही है, जो तुम सदा से थे, प्रयास, दौड़ और अशांति के जाते ही वही तुम्हारा शाश्वत रूप प्रगट हो जाता है। पहली बात, संसार छोड़ना नहीं है। दूसरी बात, कुछ पाना नहीं है। सिर्फ संसार के पीछे तुम्हारे दौड़ने की जो पुरानी आदत, जो आपाधापी है, वह जो तृष्णा का तुमने एक बड़ा धुआं पैदा कर रखा है, वह धुआं भर शांत हो जाए, तुम अचानक पाओगे-तुम मुक्त थे ही, तुम मुक्त हो ही। मुक्ति तुम्हारा स्वभाव है। मुक्त होना तुम्हारी निजता है, तुम्हारा स्वधर्म है। संसार ने बांधा नहीं है और तुम्हें मुक्त नहीं होना है। यह बड़ी जटिल बात है। तुम मुक्त हो और तुम संसार की तरफ आंखें लगाए बैठे हो और अपनी तरफ देखते नहीं, इसलिए मुक्ति से चूकते चले जा रहे हो। यह घटना प्यारी है कि जब शिष्य समाधि को उपलब्ध हो गया और गुरु के चरण छूने को झुका, तो गुरु ने कहा, रुक! रुक! अब तो तू मेरे ही कक्ष में आ गया, अब तो तू मेरे ही जैसा हो गया, अब पैर छूने की कोई जरूरत नहीं। शिष्य बहुत हैरान हुआ, क्योंकि उसे तो पता ही नहीं है कि समाधि लग गयी है। उसे तो इतना ही पता है कि चित्त शांत हो गया, उसे तो इतना ही पता है कि चित्त निर्मल हो गया, उसे तो इतना ही पता है कि एक मौन घना हो गया, लेकिन वह कैसे कहे कि समाधि लग गयी! उसे पहले तो समाधि लगी नहीं थी कभी, इसलिए पहचाने कैसे? प्रत्यभिज्ञा कैसे हो? तो उसने कहा, अगर यही समाधि है, अगर यही मुक्ति है कि मैं तुम्हारे जैसा हो गया, कि मुझे भी निर्वाण उपलब्ध हो गया, तो पहले क्यों न कहा? क्योंकि मुझे तो कोई नयी बात नहीं हुई, थोड़ी अशांति जरूर चली गयी, तरंगें थोड़ी शांत हो गयीं, लेकिन मैं तो वही का वही हूं; झील अब पुरानी जैसी तरंगित नहीं है, मौन है, मगर हूं तो मैं वही का वही, नया कुछ भी नहीं हुआ है। माना कि सरल हो गया, थोड़ा निर्दोष हो गया, लेकिन कोई ऐसी बड़ी बात नहीं घटी कि कुछ नया हो गया हो! ऐसा 55
SR No.002386
Book TitleDhammapada 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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