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एस धम्मो सनंतनो
तिल-तिल सूरज दहका, बात चुक गयी,
याद रह गयी बाकी। है क्या संसार में।
बात चुक गयी,
याद रह गयी बाकी। एक दिन तुम अचानक पाओगे, सब चुक गया, कुछ भी न बचा। जैसे कोई उपन्यास पढ़ा हो, ऐसी हो जाएगी यह जिंदगी।
अभी भी देखो न, तुम पचास साल जी लिए, कि चालीस साल जी लिए, पीछे लौटकर देखो। वे चालीस साल अब क्या हैं! जैसे कहीं फिल्म के पर्दे पर कोई कहानी चलते देखी हो। और ज्यादा क्या है! सपना रह गया है एक भीतर, एक याददाश्त रह गयी है, और क्या है? जिस दिन तुम मरोगे, उस दिन क्या होगा तुम्हारे हाथ में संसार के नाम पर? कुछ छोटी सी स्मृतियों की एक पोटली।
इस संसार में बांधने जैसा कुछ भी नहीं है। लेकिन तुम इसे जोर से पकड़े हुए हो। तो यह मत पूछो कि संसार से मुक्ति कैसे हो? यह पूछो कि मैं अपनी पकड़ कैसे ढीली करूं? ये प्रश्न अलग-अलग हैं। और प्रश्न का ठीक-ठीक पूछ लेना, ठीक-ठीक उत्तर को पाने की अनिवार्य शर्त है। यह मत पूछो कि संसार से कैसे मुक्ति हो? यही तो तुम्हारे तथाकथित परंपरागत साधु-संन्यासी पूछ-पूछकर झंझट में पड़ गए हैं। संसार से कैसे मुक्ति हो? तो वे कहते हैं, छोड़ो दुकान, छोड़ो पत्नी, छोड़ो बच्चे। पहले तो माना था कि ये मेरे हैं, अब छोड़ो! मानने में ही भ्रांति थी, तो छोड़ने को क्या है, तुम छोड़ोगे कैसे? पत्नी तुम्हारी है नहीं, तुम छोड़ोगे कैसे? यह छोड़ने का दावा भी उसी भ्रांति पर खड़ा है कि मेरी थी। __ मेरे एक मित्र हैं, संन्यासी हो गए-पुराने ढंग के संन्यासी हैं। बार-बार जब भी मिलते हैं, वे कहते हैं कि लाखों पर लात मार दी। तो मैंने उनसे पूछा, वर्षों हो गए छोड़े हुए, लगता है लात ठीक से लगी नहीं; नहीं तो याद क्यों बाकी है! लग गयी लात, खतम हो गयी। और लाख वगैरह भी नहीं थे, मैंने उनसे कहा, क्योंकि तुम मुझसे ही, मेरे ही सामने कहते हो कि लाख थे! मुझे पक्का पता है कि तुम्हारे पोस्ट आफिस की किताब में कितने रुपए जमा थे। वह थोड़े डरे, उनके दो-चार शिष्य भी बैठे हुए थे। कहने लगे, फिर पीछे बात करेंगे। मैंने कहा, पीछे नहीं, अभी ही बात होगी।
लाख-वाख कुछ थे नहीं, होमियोपैथी के डाक्टर थे। अब होमियोपैथी के डाक्टरों के पास कहीं लाख होते हैं, लाख ही हों तो होमियोपैथी की कोई डाक्टरी करता है! मैंने कहा, मक्खी उड़ाते थे बैठकर दवाखाने में, कभी मरीज तो मैंने देखे नहीं, हमीं लोग गपशप करने आते थे, तो बस वही थे जो कुछ! कितने रुपए थे तुम