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एस धम्मो सनंतनो
गुरु समाप्त नहीं है। गुरु जो कहता है, उसे सुनना, लेकिन गुरु जो है, वह बनने की कोशिश करना। गुरु की कही बात को ही बस सब कुछ मत मान लेना, वह तो कूड़ा-करकट है। वह तो उच्छिष्ट है। जहां से आती हैं वे बातें, जिस अंतरतम से आती हैं, उस अंतरतम को पहचानना, तो तुम्हारे जीवन में क्रांति होगी।
तो वह बड़ा पंडित हो गया । सदाशिव का नाम फैलने लगा। लोग उससे शास्त्रार्थ करने आने लगे। एक दिन एक बहुत बड़ा प्रसिद्ध पंडित आया, जिसकी जगत में ख्याति थी और सदाशिव ने उससे ऐसा विवाद किया कि उस पंडित के छक्के छुड़ा दिए। गुरु बैठा सुन रहा है, देख रहा है। एक-एक तर्क उस पंडित का सदाशिव ने खंडित कर दिया। सुबह थी, सर्दी की सुबह थी, लेकिन पंडित को पसीना आ गया। ऐसी पराजय उसने कभी जानी न थी ।
लेकिन सदाशिव हैरान था, गुरु बैठे देख रहे हैं, न तो उत्सुक हैं, न प्रभावित हैं। न एक दफे उन्होंने आंख से इशारा किया कि खूब, ठीक, अच्छा किया। और जब पंडित चला गया पराजित होकर, तो गुरु ने जो कहा, इतना ही - युवक, अपनी वाणी को कब जीतोगे ? ज्ञान से कब छुटकारा पाओगे ? तर्क से कब मुक्ति होगी?
था -
सदाशिव ने सुना। बड़ी बहुमूल्य घड़ी रही होगी। वह तो कुछ और आशा लिए बैठा था। वह तो सोचता था, गुरु पीठ ठोकेंगे। कहेंगे कि बेटा, अब तू योग्य हो गया, ठीक मेरे पद का अधिकारी हो गया। लेकिन गुरु ने कहा, कब तू अपनी वाणी को जीतेगा? कब ज्ञान से तेरा छुटकारा होगा ? कब तर्कजाल के बाहर आएगा ? सदाशिव, कब ?
कुछ सोचा था, कुछ हो गया। बड़ी आकांक्षा से बैठा होगा, एक बड़े महापंडित को पराजित किया था, प्रशंसा की आकांक्षा रही होगी, पीठ ठोकेंगे गुरु, पुरस्कार गुरु, बात कुछ और हो गयी ! लेकिन बात चोट कर गयी ।
अक्सर ऐसा होता है कि जब लोहा गर्म होता है, तभी चोट करनी होती है। गुरु को प्रतीक्षा करनी होती है कि कब चोट करे। यह मौका गुरु ने खूब चुना । प्रशंसा के लिए दरवाजा खुला था सदाशिव के हृदय का, इस मौके को छोड़ा नहीं उन्होंने । पूछा – कब, सदाशिव ? सदाशिव ने सुना, गुरु की तरफ आंखें उठायीं, एक क्षण में बात समझ आ गयी ।
समझनी हो तो एक क्षण में समझ आ जाती है। समझनी हो तो समझनी नहीं पड़ती, समझनी हो तो दिखायी पड़ जाती है, दर्शन होता है। उसे बात दिखायी पड़ गयी कि बात तो ठीक ही है। मैंने व्यर्थ वाणी का जाल फैलाया, मुझे कुछ पता नहीं, मुझे कुछ अनुभव नहीं । मैंने तर्क किया, पंडित को हरा भी दिया, न उसे पता है न मुझे पता है । कल कोई और आएगा, मुझे भी हरा दे सकता है। अपने जीवन का कोई आधार तो नहीं है। यह शब्दजाल में मैं उलझा, इतना समय मैंने व्यर्थ गंवाया।
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