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________________ सत्य अनुभव है अंतश्चक्षु का था । कर्म के ही लिए तैयार किया गया था । वही उसकी निष्ठा थी, वही उसकी कुशलता थी, वही उसके जीवन की शैली थी । यह अष्टावक्र की बात इसे जम भी नहीं सकती थी । अष्टावक्र अगर इसे चले भी जाने देते, यह जंगल में बैठ भी जाता तो भी बैठ नहीं सकता था । उठा लेता तीर, शिकार करता, लकड़ियां काटता, कुछ न कुछ उपद्रव करता, यह बैठ नहीं सकता था। बैठने की इसकी संभावना नहीं थी, यह क्षत्रिय था, संघर्ष और संकल्प इसका गुण था । तो कृष्ण ने उसे ठीक वही कहा जो उसके स्वधर्म के अनुकूल था । उससे कहा, स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः । दूसरे के धर्म को पकड़ने में भय है अर्जुन। यह जो तू बातें कह रहा है— संन्यास की, समर्पण की, सब छोड़ देने की, त्याग की, यह तेरा धर्म नहीं है, क्योंकि यह तेरी जीवन-शैली नहीं है। मैं तुझे जानता हूं, तुझे बचपन से जानता हूं, तेरे अंतरतम से जानता हूं, अभी तुझे देख रहा हूं कि तेरे भीतर तो उबाल है, तूफान है, तू आंधी बन सकता है; तू अंधड़ बनेगा तो ही प्रसन्न होगा। और प्रसन्न होगा तो ही परमात्मा को धन्यवाद दे सकेगा । योद्धा तेरे खून में छिपा है, तेरे हड्डी - मांस-मज्जा में बैठा है, तू योद्धा होकर ही प्रभु के चरणों में सिर रख पायेगा। तू अपनी नियति को इसी तरह पूरा करेगा। यही तेरा भाग्य है। इससे तू भागेगा, बचेगा, तो तू परधर्म में पड़ेगा। अब खयाल रखना, परधर्म और स्वधर्म का मतलब यह नहीं होता — हिंदू, मुसलमान, ईसाई, जैन । नहीं, उन दिनों कोई मुसलमान तो थे नहीं भारत में, इसलिए यह तो कोई सवाल ही नहीं था; न कोई ईसाई थे, न कोई यहूदी थे, न कोई पारसी थे । इसलिए कृष्ण ने जब कहा स्वधर्म, परधर्म, तो उनका मतलब साफ है। मतलब इतना ही है कि जो तुम्हारे अनुकूल हो, वह स्वधर्म, जो तुम्हारे प्रतिकूल हो, वह परधर्म । निश्चित ही, अगर तुम आलसी हो, अगर तुम्हें कर्म करने में कोई रुचि नहीं आती, करने मात्र में तुम्हें कोई रस नहीं आता - अपनी परख करना, अपनी जांच-परख करना, तुम्हें पता चल जाएगा। तुम्हारे जीवन के सुंदर क्षण कब आते हैं, जब तुम कुछ करते हो तब आते हैं, या तुम जब कुछ नहीं करते तब आते हैं, तुम्हारे जीवन के पराकाष्ठा के क्षण कब आते हैं ? तुम जब आंख बंद करके बैठे हो तब आते हैं ? एक युवक मेरे पास आया। अमरीका से आया, वह शांत ध्यान करना चाहता था। मैंने उसे देखा, मैंने कहा, नहीं, यह तेरे काम का नहीं, यह परधर्म होगा। मैंने उससे कहा, तू तो एक काम कर, तू रोज सुबह एक घंटा दौड़, दौड़ना तेरा ध्यान है। उसने कहा, आप कहते क्या हैं ! आठ साल से मैं यह कर रहा हूं, मैं दौड़ने में बड़ा आनंदित होता हूं। और कभी-कभी दौड़ते-दौड़ते ऐसे क्षण आ जाते हैं, जब न तो मैं देह रह जाता, नमन । आपकी किताबें पढ़कर आपकी बातें सुनकर मुझे लगा कि और गहरे में उतरना है, इसीलिए तो मैं यहां आया हूं। लेकिन दौड़ना ही आप 303
SR No.002386
Book TitleDhammapada 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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