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एस धम्मो सनंतनो
कहते हैं! मैंने कहा, तेरे लिए यही ठीक होगा।
कोई नाचकर ध्यान को उपलब्ध होता है, कोई शांत बैठकर मूर्तिवत होकर ध्यान को उपलब्ध होता है। ध्यान का कोई संबंध न तो शांत बैठने से है, न नाचने से है। ध्यान का संबंध तुम्हारे स्वभाव की अनुकूलता से है। जब तुम्हारा स्वभाव और तुम्हारा कृत्य अनुकूल होते हैं, दोनों में तालमेल होता है, सामंजस्य होता है, तत्क्षण शांति आ जाती है। तुम्हारे भीतर एक राग बजता है, एक गीत पैदा होता है। __ उस युवक ने कहा कि यह मुझे हो रहा है। जब मैं दौड़ता हूं, सुबह की हवाओं में, समुद्र-तट पर पड़ती सूरज की रोशनी में, कभी-कभी मील, दो मील, तीन मील दौड़ने के बाद ऐसी घड़ियां आ जाती हैं जब मुझे न तो देह का पता रहता है, न मन का पता रहता है। बस दौड़ रह जाती है, दौड़ने वाला खो जाता है, तब बड़े शिखर के क्षण मुझे अनुभव होते हैं, बड़ी अदभुत शांति, बड़ा अदभुत आनंद, उत्सव मेरे भीतर पैदा होता है! ___ अब इस युवक को अगर विपस्सना करने बिठा दिया जाए, या अनापानसती करने बिठा दिया जाए, यह इसके अनुकूल न होगा, यह पगला जाएगा। फिर ऐसे लोग हैं, जैसे अष्टावक्र, इनको अगर दौड़ने को कहा जाए तो संभव नहीं होगा।
तुम अपने स्वभाव को पहचानो।
निश्चित ही आलस्य से भी मार्ग है। लेकिन तब आलस्य को समर्पण बनाना होता है। तब आलस्य को भी रूपांतरित करना होता है। तब आलस्य को अपने अहंकार का विसर्जन बनाना होता है। तब कहना होता है—प्रभु, अब तेरी मर्जी! __बुद्ध का मार्ग आलस्य का मार्ग नहीं है, बुद्ध का मार्ग कर्म का मार्ग है। इसलिए बुद्ध का शब्द जो बुद्ध उपयोग करते हैं, वह है, श्रमण। श्रम का मार्ग है, श्रम से मिलेगी समाधि। अथक श्रम से मिलेगी समाधि। खूब दौड़ना पड़ेगा, तब मंजिल मिलेगी। बुद्ध भी क्षत्रिय थे, इसलिए स्वाभाविक। ___ अगर तुम आलसी हो, तो ब्राह्मणों की सुनो, क्षत्रियों की मत सुनो। इसलिए ब्राह्मण कहते हैं, प्रसाद से मिलेगा। फर्क समझे? क्षत्रिय कहते हैं, प्रयास से; ब्राह्मण कहते हैं, प्रसाद से। ब्राह्मण कहते हैं, क्या प्रयास करना! उसकी अनुकंपा पर्याप्त है। तुम जरा शांत होकर बैठ जाओ, उसको बरसने दो, वह बरस ही रहा है, तुम जरा द्वार-दरवाजे खोल दो, ब्रह्म बरस ही रहा है, ब्रह्म-वर्षा हो ही रही है, तुम भर जाओगे, कुछ और करना नहीं है। ब्राह्मण-संस्कृति का मौलिक स्वर है, प्रसाद, प्रभुकृपा। और श्रमण-संस्कृति, जैन और बौद्धों का मौलिक स्वर है, प्रयास, श्रमण, श्रम। कुछ करना होगा। जैन और बौद्ध संस्कृति में ईश्वर को जगह ही नहीं है। कोई जगह की जरूरत भी नहीं है। अपने ही श्रम से मिल जाता है, उसके प्रसाद की कोई आवश्यकता नहीं है। और ब्राह्मण-संस्कृति में मूलतः प्रयास के लिए कोई जगह नहीं है, उसकी कृपा से ही मिलता है। तो तुम उसकी कृपा के योग्य बन जाओ।
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