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________________ धर्म तुम हो बहुमूल्य है। स्वयं की मालकियत। और इस बार स्वामी को किसी पर निर्भर नहीं होना है, स्व-निर्भर रहना है। उस अर्थ में भी उसे अपना मालिक रहना है। उस अर्थ में भी उसे अपनी मालकियत नहीं खोनी है। तो बुद्ध के भिक्षु भिक्षाटन करके लौटे हैं। रोज भिक्षाटन के लिए जाते थे, यह उनकी साधना थी, यह उनका ध्यान था। यह ध्यान का अनिवार्य अंग था कि रोज भिक्षा मांगने जाओ और देखो, कैसे तुम्हारा मन जरा-जरा सी बात से चोट खाता है। किसी ने भिक्षा दे दी तो तुम प्रसन्न हो जाते हो। किसी ने न दी तो नाराज हो जाते हो। किसी ने अच्छा भोजन दे दिया तो तुम खूब-खूब धन्यवाद देते हो और बड़ा लंबा उपदेश करके आते। और अगर किसी ने अच्छा भोजन न दिया, तुम्हारा उपदेश छोटा होता है, फिर तुम ठीक से धन्यवाद भी नहीं देते। बेमन से धन्यवाद देते हो। जिस घर से अच्छा भोजन मिला, वहां तुम दुबारा पहुंच जाते हो। जिस घर अच्छा भोजन नहीं मिला, वहां तुम दुबारा नहीं जाते। जिस घर से इनकार मिला, वहां फिर दुबारा तुम दस्तक नहीं देते। बुद्ध ने इस सबको ध्यान की प्रक्रिया बताया था। चुनाव मत करना, जो आज हुआ, आज हुआ। कल का क्या पता! आज जिसने इनकार कर दिया, कल शायद दे। और आज जिसने दिया, कल शायद इनकार कर दे। इसलिए आज से कल का कोई निर्णय मत लेना। रोज-रोज नए-नए जाना। और कल की धारणा को बीच में अवरोध मत बनने देना। और रोज-रोज देखना कि जब कोई हलुवा और पूड़ी तुम्हारे पात्र में डाल देता है, तो तुम्हारे मन में विशेष धन्यवाद का भाव उठता है। और जब कोई रूखी-सूखी रोटी डाल देता है, तो विशेष धन्यवाद का भाव नहीं उठता। तब तुम धन्यवाद कहते भी हो तो औपचारिक। इस सब बात पर ध्यान रखना, इस पर जागना और धीरे-धीरे ऐसी घड़ी आ जाए कि सब समत्व हो जाए, सब समान हो जाए। कोई अच्छा दे तो ठीक, कोई बुरा दे तो ठीक; न दे तो ठीक, दे तो ठीक। और हर हालत में तुम्हारा तराजू कंपे नहीं। . तो भिक्षु इस ध्यान की प्रक्रिया को करके, गांव से भिक्षाटन करके वापस लौट रहे थे। अचानक बादल उठा और वर्षा होने लगी। तो कहीं शरण लेने को पास के ही मकान में वे चले गए होंगे। वह थी राजधानी की बड़ी अदालत-विनिश्चयशाला। उन्होंने वहां जो दृश्य देखा, उनकी समझ में ही न आया। . ___ ये भिक्षु ध्यान में लगे थे, ये भिक्षु साधना में तत्पर थे, इनकी आंखें खुली थीं, साफ थीं, इसीलिए इन्हें दिखायी पड़ा। कोई संसारी गया होता तो दृश्य दिखायी ही नहीं पड़ता। हमें वही दिखायी पड़ता है जो हम देख सकते हैं। इन भिक्षुओं के पास बड़ी स्पष्ट आंख रही होगी। इन्होंने वहां क्या देखा, ये बड़े हैरान हुए। देखा कि कोई न्यायाधीश झपकी खा रहा है। वादी-प्रतिवादी दलील कर रहे हैं और न्यायाधीश 17
SR No.002386
Book TitleDhammapada 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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