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________________ अकेला होना नियति है फुर्सत कहां है? सो लेंगे फिर सात दिन के बाद जितना सोना होगा, अभी तो जाग लेना है। दिनभर बुद्ध को सुनता, रातभर बुद्ध को गुनता। वह युवक बुद्ध के चरणों में ही रुक गया, और सात दिनों बाद जब मरा तो स्रोतापत्ति-फल को पाकर मरा। स्रोतापत्ति-फल का अर्थ होता है, जो ध्यान की धारा में प्रविष्ट हो गया। जो उतर गया ध्यान की धारा में। जो जीवन के मूलस्रोत में उतर गया-स्रोतापत्ति। जीवन का मूल स्रोत ध्यान है। हम ध्यान से आए हैं और ध्यान में ही हमें जाना है। हम समाधि से उत्पन्न हुए हैं, हम समाधि की तरंग हैं और हमें समाधि में ही लीन हो जाना है। हम जिस सागर से आए हैं, उसी सागर में हमें फिर वापस मिल जाना है। इस भावबोध को कहते हैं स्रोतापत्ति। कि मैं लहर मात्र हूं, मेरा अलग कुछ होना नहीं है, मैं सागर के साथ एक हूं। और जिस सागर से आना हुआ है, उसी में वापस लौट जाना है। इसलिए मैं व्यर्थ के उधेड़बुन में न पडूं, मैं कोई चिंताएं न लूं-मैं हूं ही नहीं तो चिंता कैसी! मेरा होना अलग है ही नहीं। यह जो विराट लीला चल रही है, यह जो विराट अस्तित्व घूम रहा है, मैं इसकी एक तरंग हूं; फिर कैसी चिंता! चिंता तो तभी पैदा होती है जब मैं सोचता हूं, मैं अलग-थलग, मेरे ऊपर जिम्मेवारी, मैं करूं तो ऐसा, मैं न करूं तो वैसा न हो जाए; मैं ऐसा करूं तो जीतूं, ऐसा करूं तो हार जाऊं; ऐसा करूं तो सम्मान मिले, ऐसा करूं तो अपमान मिले; इसमें सफलता, इसमें विफलता; इसमें हार, इसमें जीत; तो हजार चिंताएं होती हैं। कैसी जीत, कैसी हार! इस विराट के साथ हम एक हैं, ऐसी प्रतीति जिसको हो गयी उसको कहते हैं-स्रोतापत्ति। ___ वह युवक मरने के पहले स्रोतापत्ति-फल को पाकर मरा। वह युवक धन्यभागी था! मृत्यु के पहले ध्यान की धारा में जो प्रविष्ट हो जाते हैं, उनसे बड़ा और कोई धन्यभाग नहीं। क्यों? क्योंकि मृत्यु के पहले जिन्होंने ध्यान को जान लिया, फिर उनकी मृत्यु होती ही नहीं। शरीर ही मरता है, अहंकार ही मरता है, मन मरता है, लेकिन वे नहीं मरते। जिन्होंने मृत्यु के पहले ध्यान नहीं जाना, उनकी मृत्यु होती है, क्योंकि वे शरीर के साथ अपने को एक समझे बैठे हैं। जब शरीर मरता है तो वे समझते हैं, हम मरे। वे मन के साथ अपना तादात्म्य किए बैठे हैं, जब मन बिखरने लगता है और मन सूखे पत्तों की तरह वृक्ष से गिरने लगता है, तब वे चीत्कार करते हैं कि हम गए। उनकी पीड़ा इतनी सघन हो जाती है कि वे मूञ्छित हो जाते हैं। लोग मूछित मरते हैं। शरीर को जाते देखकर, मन को जाते देखकर, उनका होश खो जाता है। पीड़ा इतनी सघन होती है इस टूटने की—इतने जुड़े थे; और इसी को जीवन जाना था, जीवन को जाते देखकर वे बेहोश हो जाते हैं लोग बेहोश मरते हैं। इसलिए मरने का जो एक अमूल्य अनुभव है, वह चूक जाता है। 259
SR No.002386
Book TitleDhammapada 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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