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एस धम्मो सनंतनो
__ तुम्हारी अड़चन भी मेरी समझ में आती है। उदाहरण के लिए तम जानते हो कि क्रोध करना बुरा है। तुम नहीं जानते, सुना है तुमने कि क्रोध करना बुरा है। काश, तुम जानते तो कैसे कर पाते! सुना है तुमने, बुद्ध कहते, महावीर कहते, कृष्ण कहते, क्राइस्ट कहते कि क्रोध बुरा है। बचपन से सुना है, इतना सुना है कि संस्कार गहरा हो गया। तुम भी दोहराते हो कि क्रोध बुरा है। लेकिन तुम्हारे जीवन-अनुभव ने ऐसा नहीं बताया कि क्रोध बुरा है। तुम्हारा जीवन-अनुभव तो अभी पका ही नहीं। ___ तो जब तक कहना हो, कहते रहते क्रोध बुरा है, जब करने का मौका आता है, तब क्रोध कर गुजरते हैं। करोगे तो तुम वही जो तुम्हारे भीतर से आ रहा है, कह सकते हो वे सब बातें सुंदर-सुंदर सुनी हुई, दूसरों से ली हुई, उधार।
पांडित्य ऊपर-ऊपर रहता है, तुम्हें बदलता नहीं। पांडित्य तो ऊपर के आभूषणों. जैसा है। तुम कुरूप थे तो तुम कुरूप ही रहते हो, कितने ही आभूषण पहन लो, इससे तुम सुंदर न हो जाओगे। सौंदर्य की आभा तो भीतर से आती है। भीतर से प्रगट होती है। ऐसा ही समझो कि एक बुझी हुई लालटेन रखी है, उसके चारों तरफ कागज चिपकाकर खूब लिख दो—प्रकाश; बड़े-बड़े अक्षरों में प्रकाश, तो भी प्रकाशन होगा। जलेगा भीतर का दीया तो फिर लिखने की जरूरत न होगी, प्रकाश होगा।
जब तुम्हारा ज्ञान का दीया जलता है तो तुम्हारे जीवन में प्रकाश होता है। उस प्रकाश का नाम ही आचरण है। आचरण ज्ञान का ही फल है, ज्ञान से ही पैदा होता है। ज्ञान है ज्योति, आचरण है उस ज्योति से फैलता हुआ प्रकाश। और अनाचरण है अंधकार, जो दूर होने लगा, जो हटने लगा, भागने लगा। लेकिन यह बात किताबी ज्ञान से न होगी।
तुम कहते हो, 'मैं जानता हूं कि क्या ठीक है।'
नहीं, तुम नहीं जानते। ठीक जान लिया तो अन्यथा करना संभव नहीं है। तुमने जान लिया कि यह दरवाजा है, तो दरवाजे से ही निकलोगे, फिर दीवाल से कैसे निकलोगे! और तुमने जान लिया कि यह दीवाल है, तो फिर दीवाल से कैसे निकलोगे! अब कोई तुमसे कहे कि मुझे पता तो है कि दरवाजा कहां, दीवाल कहां, लेकिन क्या करूं, जब निकलने की कोशिश करता हूं तो दीवाल से ही करता हूं, सिर टकरा जाता है! तो तुम कहोगे, पागल तो नहीं हो? जब पता है, तो किस भांति तुम दीवाल से निकलने की चेष्टा करने में अभी तक सफल हो? अभी तक कर पाते हो? यह तो असंभव हो जाएगा। सिर तोड़ना हो तो बात दूसरी। सिर तोड़ने के लिए ही निकलना हो दीवाल से तो बात दूसरी, तब निकलना लक्ष्य ही नहीं है, सिर तोड़ना लक्ष्य है। बोध के पीछे आचरण ऐसे ही चलता है जैसे तुम्हारे पीछे तुम्हारी छाया चलती है। __ लेकिन ज्ञान है बासा और उधार, मुर्दा, किताब में लिखा हुआ या स्मृति में लिखा हुआ। तुम स्वयं उससे उजागर नहीं हुए हो। ज्योतिर्मय तुम नहीं हो। इसलिए
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