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________________ एस धम्मो सनंतनो शुरू हुआ था। उनके बीज अंकुरित हुए थे। कठिन को उन्होंने श्रम से सरल कर लिया था, असंभव को संभव बनाया था। निश्चय ही ध्यान से असंभव कुछ भी नहीं, ध्यान से ज्यादा असंभव कुछ भी नहीं। और जिस दिन ध्यान संभव हो जाता है, उस दिन सब संभव हो गया। तुम सब कमा लो, तुम सब इकट्ठा कर लो, तुम सारी पृथ्वी के मालिक हो जाओ, तुम दरिद्र हो, दरिद्र ही मरोगे। तुम ध्यान कमा लो और सब छूट जाए, कोई चिंता नहीं, तुम समृद्ध हो गये, तुम सम्राट हो गये। और तुम्हारे पास संपदा ऐसी आयी जिसे मौत भी न छीन सकेगी। तो भगवान ने बड़े ही मधुर वचनों में उनसे कुशल-क्षेम पूछा। उन्होंने भगवान की सुनी थी। वे भगवान की सुनकर तीर की तरह ध्यान के लक्ष्य की तरफ गये थे और लक्ष्य वेधकर लौटे थे। स्वभावतः, गुरु हर शिष्य की उपलब्धि में आनंदित होता है। उतना ही आनंद गुरु को फिर मिलता है जितना स्वयं के बोध में मिला था। हर बार जब गुरु का एक शिष्य बोध को उपलब्ध होता है, तो फिर-फिर जैसे उसका बोध वापस लौटता। जैसे मां बेटे को देखकर प्रसन्न होती है कि बेटा सफल हआ, जैसे बाप बेटे को देखकर प्रसन्न होता है कि बेटा बड़ा हुआ—ये तो छोटी तुलनाएं हैं, छोटी उपमाएं हैं, गुरु और शिष्य के बीच जो संबंध है वह बेटा-बाप, मां-बेटे से बहुत बड़ा है, अनंत गुना बड़ा है। गुणात्मक रूप से भिन्न है, मात्रात्मक भेद ही नहीं है। ___ जब देखा होगा अपने इन पुत्रों को, ज्योतिर्मय दीये की तरह आते-ज्योतियों का एक जुलूस जैसे आया हो-देखा होगा खिले इनके फूलों को, तो बुद्ध आनंदित हों, यह स्वाभाविक है। परम आनंदित हों, यह स्वाभाविक है। एक विजय यात्रा पूरी करके ये शिष्य वापस लौटे थे। लेकिन वह एक भिक्षु जो जेतवन में ही रह गया था, यह सब देखकर जल-भुन गया। उसे बड़ी ईर्ष्या की लपटें पैदा हुईं। उसमें ईर्ष्या और प्रतिस्पर्धा भयंकर रूप से फुफकार मारने लगी। उसने सोचा, अरे, शास्ता इनके साथ बहुत मीठी-मीठी बातें करते हैं और मेरी तरफ देखते भी नहीं! और इनसे बड़ी मिठास से कुशल-क्षेम पूछ रहे हैं! और मुझसे कभी बोलते भी नहीं। जान पड़ता है कि ये ध्यान पा गये हैं। लेकिन कोई बात नहीं, मैं आज ही ध्यान पाकर भगवान से बातचीत करूंगा। ईर्ष्या, जलन, प्रतिस्पर्धा, अहंकार के कारण वह ध्यान पाना चाहता था। ईर्ष्या के कारण वह ध्यान पाना चाहता था। स्पर्धा के कारण वह ध्यान पाना चाहता था। और ध्यान के मार्ग में इनसे बड़ी बाधाएं नहीं। और वह चाहता था, आज का आज हो जाए। वह चाहता था, कल सुबह मैं भी ऐसे ही आऊं, ज्योतिर्मय, और भगवान मुझसे भी ऐसी ही कुशल-क्षेम पूछे। मगर ये कारण ही गलते थे। एक क्षण में भी कभी ध्यान हो सकता है, लेकिन 210
SR No.002386
Book TitleDhammapada 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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