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एकांत ध्यान की भूमिका है
आते हैं। कुछ तुम बुद्धमय हो जाओ तो बुद्ध समझ में आते हैं। बुद्ध जैसे जब तक न हो जाओ कुछ, तब तक कैसे बुद्ध को पहचानो!
ध्यान ने उन्हें भी भगवत्ता की थोड़ी सी झलक दे दी थी। आज भगवान को पहचान सकते थे। अब तक तो मान्यता थी। लोग कहते थे भगवान हैं, तो वे भी कहते थे भगवान हैं। मगर भीतर तो कहीं संदेह रहा ही होगा। संदेह इतनी आसानी से जाता भी कहां! भीतर तो कहीं न कहीं छिपे तल पर कोई कहता ही रहा होगा कि पता नहीं भगवान हैं कि नहीं हैं! दिखते तो जैसे और आदमी वैसे ही, फिर कौन जाने! फिर क्या इनके भीतर हुआ है, हम कैसे पहचानें! जब अपनी ज्योति भी जल जाती है तब पहचान आती है। तब भाषा हमारे हाथ में होती है।
ये बुद्ध की भाषा सीखकर लौटे थे, ध्यान सीखकर लौटे थे। उन्होंने आकर आज जैसी भगवान की वंदना की...।
जैसे नाचे होंगे, जैसे आह्लादित उत्सव मनाया होगा। आज जाने होंगे, इस आदमी की करुणा कितनी प्रगाढ़ है। आज जाने होंगे कि यह अगर न होता तो हम कभी जागते ही न, जन्मों-जन्मों तक न जागते, जागना हो ही नहीं सकता था, इस आदमी ने हमें जगा दिया। अगर यह न होता तो हम सोए ही रहते, सोए ही रहते, कोई आशा न थी। और यह आदमी रोज-रोज चिल्लाता रहा, सुबह, सांझ, दोपहर-ध्यान, ध्यान, ध्यान। हमने कभी सुना नहीं। और भी कितने हैं करोड़ों, जिन्होंने नहीं सुना। आज उनको लगा होगा, हम कितने धन्यभागी और दूसरे कितने अभागे! आज तुलना का उपाय था, आज तराजू हाथ में थी, आज बात तौली जा सकती थी।
....ऐसी वंदना उन्होंने कभी न की थी। आह्लाद, अनुग्रह, उत्सव से भरे उनके हृदय गदगद थे। आज बहे जाते थे अनुग्रह के भाव से।
रखा होगा सिर बुद्ध के चरणों पर, बहे होंगे आंसू आनंद के। कहने को तो कुछ भी न था, शब्द तो छोटे हैं, मौन निवेदन किया होगा। . यह वंदना औपचारिक न थी। __ आज पहली दफा वे शिष्य हुए। और आज पहली दफा बुद्ध गुरु हुए। आज पहली दफा गुरु-शिष्य का संबंध बना, सेतु बना। आज तार जुड़े, आज हृदय से हृदय एक हुआ।
वस्तुतः पहली बार ही उन्होंने भगवान को जाना और पहचाना था।
अपने भीतर का भगवान न पहचान में आए, तो अपने से बाहर का भगवान कैसे पहचान में आ सकता है!
भगवान ने उनसे बड़े ही मधुर वचनों में कुशल-क्षेम पूछा।
यह स्वाभाविक ही था; वे अपना संकल्प पूरा करके लौटे थे। उनकी साधना ने एक महत्वपूर्ण मंजिल पूरी कर ली थी। जीवन की सबसे बड़ी संपदा का अनुभव
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