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________________ एकांत ध्यान की भूमिका है इससे सम्यक भूमि मिल जाएगी बीज को कि सब अनित्य है, तो पकड़ने को क्या है। जब संसार अनित्य है तो विचारों की तो कहना ही क्या, विचार तो संसार की छायाएं मात्र हैं। छाया की छाया। फिर उसमें पकड़ने जैसा कुछ भी नहीं है। हम विचारों में इतना रस लेते हैं, क्योंकि विचारों को हम सोचते हैं बड़े बहुमूल्य हैं। और हम विचारों को इसीलिए बहुमूल्य सोचते हैं, क्योंकि हम सोचते हैं इन्हीं विचारों के माध्यम से जगत में कुछ कर लेंगे, संसार में कुछ हो लेंगे। धन कमा लेंगे, पद कमा लेंगे, सौंदर्य पा लेंगे, कुछ कर गुजरेंगे जगत में। लेकिन अगर जगत पूरा का पूरा अनित्य है, आज है, कल नहीं हो जाएगा...। __ थोड़ा सोचो, तुम एक नदी के तट पर बैठे हो, एक चट्टान पर बैठे हो, सामने नदी की धार बह रही है, पास में ही रेत का ढेर लगा है। तुम अगर पानी पर अपने हस्ताक्षर करो तो तुम कर भी न पाओगे कि वह मिट जाएंगे। तो तुम पानी पर हस्ताक्षर नहीं करोगे। या कि करोगे? क्योंकि तुम देखते हो कि कर भी नहीं पाते हैं, मिट जाते हैं, पानी का स्वभाव ऐसा, यहां बना नहीं कि मिट गया नहीं, तुमने हस्ताक्षर कर भी दिये पानी पर तो टिकेंगे नहीं। तो तुम पानी पर नहीं करोगे। रेत पर लिखोगे? रेत पर लिखोगे तो पानी से ज्यादा टिकते हैं, मगर हवा का एक झोंका आया और मिट जाते हैं। नहीं, तुम रेत पर भी लिखने में कुछ मजा न लोगे। तुम चट्टान पर करोगे। तुम चट्टान पर खोदोगे नाम। लेकिन चट्टान भी मिट जाती है, थोड़ी देर-अबेर। समझो कि पानी बहुत जल्दी बिखर जाता, रेत थोड़ी देर से, चट्टान और थोड़ी देर से। जो रेत है वह कभी चट्टान थी, खयाल रखना। और जो चट्टान है, वह कभी रेत हो जाएगी। और मजा यह है कि चट्टान को जिसने रेत बना दिया वह पानी है। जो पानी से हार गयी वह पानी से मजबूत कैसे होगी? पानी पर दस्तखत करने में घबड़ाते हो, चट्टान पर दस्तखत कर रहे हो; और तुम्हें पता नहीं कि पानी चट्टान को तोड़ देता है। इस जीवन में हम जो भी कर गुजरने की आकांक्षाएं लिये बैठे हैं, वे सब पानी पर हस्ताक्षर जैसी हैं। चट्टान पर भी हस्ताक्षर करो तो वे भी चले जाते हैं, वे भी बचते नहीं। कितने लोग इस जमीन पर हुए-कितने लोग नहीं हुए इस जमीन पर। वैज्ञानिक कहते हैं, तुम जिस जगह बैठे हो, वहां कम से कम दस आदमियों की लाशें गड़ी हैं। यह पूरी जमीन मरघट है। इतने लोग पैदा हुए; जहां आज नगर हैं, कभी मरघट थे, जहां आज मरघट हैं, कभी नगर थे। कई दफे बदली हो चुकी है। यह पूरी पृथ्वी मरघट बन गयी। इसमें न-मालूम कितने लोग पैदा हुए, खो गये। उनका तुम्हें नाम पता? ठिकाना पता? कौन थे? क्या थे? तुम्हारी जैसी ही उनकी भी महत्वाकांक्षाएं थीं, और तुम्हारे जैसे ही उन्होंने भी बड़े-बड़े सपने बांधे थे, और तुम्हारे जैसे ही वे भी इंद्रधनुषों में जीते थे, और तुम्हारे जैसे वे भी नाम छोड़ जाना चाहते थे। क्या छूट गया है? तुम भी ऐसे ही खो जाओगे जैसे वे खो गये। 201
SR No.002386
Book TitleDhammapada 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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