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________________ एकांत ध्यान की भूमिका है बुद्धिहीन में । लेकिन एक न एक दिन यह बात तो समझ में आ ही जाएगी कि इस कीचड़ में कुछ सार नहीं है । सार खोजना हो, कहीं और खोजो । तब एक दूसरा खतरा पैदा होता है। वह खतरा है संसार से भाग जाने का । छोड़ दो संसार, भगोड़े बन जाओ। दोनों स्थिति में तुम कमल नहीं बनते । या तो कीचड़ में उलझे होते हो तो कमल नहीं बनते, या फिर झील छोड़कर ही भाग जाते हो - फिर भी कमल नहीं बनते । विहरने का अर्थ होता है, झील को छोड़ना नहीं और फिर भी छोड़ देना; भीतर से छोड़ देना। बाहर से जहां हो हर्ज नहीं, लेकिन भीतर से मुक्त हो जाना । संसार में रहते हुए भी संसार तुम्हारे भीतर न हो, तो विहार । इस शब्द को तुमने बहुत सुना होगा, लेकिन इस पर कभी ध्यान न दिया होगा। बुद्ध की कथाओं में तो बार-बार आएगा - बुद्ध यहां विहरते थे, बुद्ध वहां विहरते थे । बुद्ध की तो सारी कथाएं ही इसी से शुरू होंगी कि भगवान कहां विहरते थे । इस शब्द को खूब ध्यान करना । कभी-कभी तुम्हें भी इसका अनुभव हो सकता है। किसी शांत दशा में तुम अपने घर में बैठे हो और अचानक तुम पा सकते हो कि घर तुम्हारे भीतर नहीं है। तो तुम्हें विहार का स्वाद मिलेगा। तुम अपनी पत्नी के पास बैठे हो और चौंककर तुमने देखा कि कौन पत्नी, कौन पति! कौन मेरा, कौन तेरा ! क्षणभर को एक अजनबी राह पर मिलन हो गया है, फिर बिछुड़ जाएंगे। न पहले इसका कुछ पता था, न बाद में इसका कुछ पता रह जाएगा। यह थोड़ी सी देर के लिए संग-साथ हो लिया है— नदी - नाव - संयोग - यह जल्दी ही टूट जाएगा। इसमें अनिवार्यता नहीं है, इसमें कोई आवश्यकता नहीं है, सांयोगिक है; संयोगमात्र है। ऐसा अगर तुम्हें स्मरण आ जाए पत्नी के पास बैठे-बैठे, तो तुम पाओगे कि पास भी बैठे हो – शायद हाथ हाथ में भी ले लिया है - लेकिन इतनी दूरी हो गयी, तुम कहीं और, वह कहीं और, दोनों के बीच अनंत आकाश जितना फासला हो गया, तो विहार का अनुभव होगा, तो विहार का स्वाद लगेगा। ये शब्द ऐसे नहीं हैं कि इनका अर्थ तुम शब्दकोश में खोज लो। ये शब्द ऐसे हैं कि जीवन के कोश में इनका अर्थ खोजना पड़ता है । ये शब्द बड़े जीवंत हैं। ये शब्द ही नहीं हैं, ये चित्त की दशाएं हैं। भोजन करने बैठे हो, भोजन कर रहे हो और कभी होश सध जाए, क्षणभर को भी, तो तुम्हें दिखायी पड़ेगा - भोजन तो शरीर में जा रहा है, तुममें तो जा ही नहीं सकता ! तुममें तो जाएगा कैसे! तुम तो चैतन्य हो, चैतन्य में भोजन कैसे जाएगा ! भोजन तो देह में जा रहा है । और भोजन देह की ही जरूरत है, तुम्हारी जरूरत भी नहीं । देह में जाएगा, देह बनाएगा, तुम तो दूर खड़े देख रहे । अगर भोजन करते समय ऐसी प्रतीति तुम्हें हो जाए, तो विहार । तो विहर गये। तो उसी क्षण में तुम बुद्धत्व के पास पहुंच गये। संसार में रहे और संसार में न रहे, कमलवत हो गये। ऐसा यह अदभुत और अनूठा शब्द है । इसका अर्थ है, जल 189
SR No.002386
Book TitleDhammapada 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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