________________
एस धम्मो सनंतनो
छेत्वा वनञ्च वनथञ्च निब्बना होथ भिक्खवो ।।२३४।।
सूत्र -संदर्भ; पूर्वार्द्ध
भगवान जेतवन में विहरते थे। उनकी देशना में निरंतर ही ध्यान के लिए आमंत्रण था। सुबह, दोपहर, सांझ, बस एक ही बात वे समझाते थे- ध्यान, ध्यान, ध्यान। सागर जैसे कहीं से भी चखो खारा है, वैसे ही बुद्धों का भी एक ही स्वाद है-ध्यान। ध्यान का अर्थ है-निर्विचार चैतन्य। पांच सौ भिक्षु भगवान का आवाहन सुन ध्यान को तत्पर हुए। भगवान ने उन्हें अरण्यवास में भेजा। एकांत ध्यान की भूमिका है। अव्यस्तता ध्यान का द्वार है। प्रकृति-सान्निध्य अपूर्वरूप से ध्यान में सहयोगी है।
उन पांच सौ भिक्षुओं ने बहुत सिर मारा, पर कुछ परिणाम न हुआ। वे पुनः भगवान के पास आए ताकि ध्यान-सूत्र फिर से समझ लें। भगवान ने उनसे कहा-बीज को सम्यक भूमि चाहिए, अनुकूल ऋतु चाहिए, सूर्य की रोशनी चाहिए, ताजी हवाएं चाहिए, जलवृष्टि चाहिए, तभी बीज अंकुरित होता है। और ऐसा ही है ध्यान। सम्यक संदर्भ के बिना ध्यान का जन्म नहीं होता। ___ इसके पहले कि हम सूत्रों में प्रवेश करें, इस छोटे से संदर्भ को जितनी गहराई से समझ लें उतना उपयोगी होगा।
भगवान जेतवन में विहरते थे।
विहार बौद्धों का पारिभाषिक शब्द है। बिहार प्रांत का नाम भी बिहार इसीलिए पड़ गया कि वहां बुद्ध विहरे। विहार का अर्थ होता है, रहते हुए न रहना। जैसे झील में कमल विहरता है—होता है झील में, फिर भी झील का पानी उसे छूता नहीं। होकर भी नहीं होना, उसका नाम है विहार। बुद्ध ने विहार की धारणा को बड़ा मूल्य दिया है। वह समाधि की परम दशा है।
एक तो है संसारी, वह संसार में रहता है। जल में कमलवत नहीं, कीचड़ में फंसा। कीचड़ में ही जीता है। कीड़े की भांति कीचड़ में उलझा है। फिर एक दिन संसारी घबड़ा जाता है—घबड़ा ही जाएगा। इस कीचड़ में कभी किसी ने कुछ सार तो पाया नहीं। कीचड़ में कीचड़ ही हाथ लगी है, दुर्गंध बढ़ती ही गयी है। इस कीचड़ से कभी किसी ने सुख तो जाना नहीं। हां, इस कीचड़ ने सुख के आश्वासन बहुत दिये हैं, लेकिन कभी कोई आश्वासन पूरा नहीं किया। ___ तो जितना बुद्धिमान आदमी होगा, उतनी जल्दी सजग हो जाएगा। बुद्ध होगा, दोहराता रहेगा। लेकिन बुद्ध भी कभी न कभी सजग होगा—इस जन्म में, किसी और जन्म में; वर्षों बाद, जन्मों बाद। समय का ही फर्क होगा बुद्धिमान में और
188