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________________ एस धम्मो सनंतनो पड़ता! आकाश उतरा है इस झील में, तुझे आकाश दिखायी नहीं पड़ता। तुझे दिखायी पड़ रहा एक जूता और एक टीन का डिब्बा! __ कबाड़ी यानी कबाड़ी। चांद दिखे उसे, जिसके पास चांद को देखने की चेतना हो। जिसके पास थोड़ी काव्य की क्षमता हो। जिसके हृदय में थोड़ा सौंदर्य का बोध हो। कबाड़ी को! कबाड़ी को चांद नहीं दिख सकता। कहावत है तिब्बत में कि चोर, जेबकट अगर संत के पास भी जाए तो उसकी नजर संत की जेब पर होती है-चाहे जेब खाली ही क्यों न हो-संत पर नजर नहीं पड़ती। हम वही देखते हैं जो हम हैं। हम वैसा ही देखते हैं जो हम हैं। सूरज ढल गया। तो बुद्ध चाहते कि इस अपूर्व घड़ी को, सूरज के ढलने की घड़ी को उनके संन्यासी, उनके भिक्षु शांत, मौन बैठकर अपने जीवन के ढलने के प्रवाह को देखें इस घड़ी में। तुम जानकर जरूर चकित होओगे कि इस देश में हमने सदा से प्रार्थना को संध्या का नाम दिया है। क्यों दिया है? ____संध्या प्रार्थना का क्षण है। एक दिन बीत गया; और एक रात आ गयी। एक और दिवस गया भीड़-भाड़ का, उपद्रव का, कर्म का, आपाधापी का; और एक छोटी मौत द्वार पर खड़ी है। इन दोनों के बीच प्रार्थना कर लो। संध्या का अर्थ है, दिवस और रात्रि के बीच के क्षण। ये क्षण प्रार्थना बन जाएं। इसलिए धीरे-धीरे इस देश में तो संध्या शब्द ही प्रार्थना का पर्यायवाची हो गया। - ऐसे ही सुबह। रात बीत गयी, एक मौत गयी, फिर तुम उठे, आपाधापी की दुनिया फिर शुरू होगी। यह जो रात और दिन के बीच का थोड़ा सा काल है, यह संध्या, यह जो मध्य की संधि-संधि से बना संध्या-यह जो बीच का थोड़ा सा अंतराल है, इस बीच के अंतराल, इस बीच की संधि का उपयोग कर लो। __ और इसका बड़ा बहुमूल्य अर्थ है। जब तुम्हारा चित्त जागरण से नींद में उतरता है, या नींद से जागरण में आता है, तो जैसे गाड़ी में गियर बदलते हैं, ठीक ऐसी ही घटना घटती है। एक क्षण को जब तुम गियर बदलते हो, एक गियर से दूसरे गियर में कार को डालते हो, तो एक क्षण को कार किसी भी गियर में नहीं रह जाती-न्यूट्रल से गुजरती है। ठीक ऐसे ही जब दिनभर बीत गया और दिनभर की चेतना शांत होने लगी और रात की चेतना उठने लगी, तो एक क्षण को न तुम जागे होते, न तुम सोए होते-एक क्षण को जरा सी संधि है, उस संधि में तुम देह के भीतर ही नहीं होते। उस संधि में तुम अपने स्वभाव में होते हो। ___ काश, उस संधि को तुम जागकर देख लो तो संध्या हो गयी। उस संधि को तुम ठीक से पहचान लो तो तुम मुक्त हो जाओगे। रोज आती यह घड़ी और रोज हम चूकते चले जाते हैं। जन्मों-जन्मों से आती यह घड़ी और हम चूकते चले जाते हैं। हमारे चूकने में हमारी कुशलता अपूर्व है। 132
SR No.002386
Book TitleDhammapada 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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