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एस धम्मो सनंतनो
हो गया। मगर श्रेष्ठ होने का खेल जारी रहा। ___मन के बाहर होने का अर्थ होता है, मेरी अब कोई महत्वाकांक्षा नहीं। मैं जो हूं, पर्याप्त हूं। मैं जैसा हूं, सुंदर हूं। मुझे अपना होना स्वीकार है। मैं आह्लादित हूं, जैसा प्रभु ने मुझे बनाया, जैसा मैंने अपने को पाया, मैं धन्यभागी हं। इससे अन्यथा होने की, किसी के ऊपर बैठने की कोई आकांक्षा नहीं है। और न किसी को नीचे बिठाने की कोई आकांक्षा है।
ऐसी तृष्णा के बाहर जो चित्त की दशा है, वहीं राजनीति समाप्त होती है। सिर्फ बुद्धों की ही राजनीति समाप्त होती है। और राजनीति समाप्त तो संसार समाप्त। संसार राजनीति का फैलाव है। राजनीति समाप्त तो आवागमन समाप्त।
पांचवां प्रश्नः
जीवन दुख है, भगवान बुद्ध का इस बात पर इतना जोर क्यों है? क्या जीवन सचमुच दुख ही दुख है, दुख के सिवा उसमें और कुछ भी नहीं है?
जीवन दुख है, इसलिए बुद्ध का इतना जोर है कि जीवन दुख है। यह जोर
इसीलिए है कि तुम इतने मूर्छित हो कि दुख में पड़े हो और तुम्हें दुख नहीं दिखायी पड़ता। इसलिए बुद्ध चिल्ला-चिल्लाकर कहते हैं कि जीवन दुख है—जन्म दुख है, जवानी दुख है, जरा दुख है, सब दुख है। यह बुद्ध का इतना चिल्ला-चिल्लाकर कहना इसलिए है कि तुम बहरे हो। तुमसे धीरे-धीरे कहा जाए तब तो तुम सुनोगे ही नहीं, चिल्ला-चिल्लाकर कहने पर भी नहीं सुनते।
और देखो, तुम पूछ रहे हो उलटा कि 'जीवन दुख है, भगवान बुद्ध का इस बात पर इतना जोर क्यों है?'
तुम दिखता है कि थोड़े नाराज भी हो, कि यह आदमी क्यों चिल्लाए चला जा रहा है कि जीवन दुख है! हम जरा मजा ले रहे हैं रुपये गिनने में, अपने बाल-बच्चों
को सम्हालने में, और यह आदमी कहे चला जा रहा है-जीवन दुख है! यह हमारा मजा खराब किए देता है। हम किसी तरह घर बनाए हैं और यह आदमी कह रहा है-जीवन दुख है! अभी तो घर बना है, अभी तो ठहरो। अभी तो जरा उत्सव मना लेने दो, बंदनवार लगाने दो, बैंड-बाजा बजाने दो। हम तो विवाह करने जा रहे हैं
और आप रास्ते में खड़े चिल्ला रहे हैं कि जीवन दुख है! अरे, विवाह तो हो जाने दो! जल्दी क्या है? आएगा बुढ़ापा, आएगी मौत, तब देख लेंगे। __ इसलिए बुद्ध ने यह नहीं कहा कि बुढ़ापा दुख है, बुद्ध ने जन्म से शुरू किया,
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