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________________ जागरण ही ज्ञान सज्जन बोले, हां जी, आफ्टर आल हम सरकारी नौकर हैं। जिसकी लाठी उसकी भैंस, उसके साथ हम | एक तो मालिक जो बन बैठे हैं, उसकी राजनीति है । और एक जो मालिक नहीं बन पाता, उसकी राजनीति है। दोनों से मुक्त होना है। दोनों से मुक्त आदमी ही संन्यस्त है। किसी के मालिक बनना अनाचार है। हर एक व्यक्ति अपना मालिक है। क्यों कोई दूसरा किसी का मालिक हो ? और किसी का गुलाम बनना अपना आत्म-अपमान है। अपनी आत्मा का इतना दमन और अपमान करना उचित नहीं । तो न तो किसी के मालिक बनना और न किसी के गुलाम बनना। ऐसा जो आदमी है, उसको मैं संन्यस्त कहता हूं। और ऐसी दशा लाने के लिए तुम्हें मन से धीरे-धीरे पार जाना ही होगा। मन कहीं न कहीं उलझा देगा अन्यथा । मन किसी न किसी तरह की राजनीति में डुबा देगा | तुम ठीक ही पूछते हो कि 'क्या जब तक मन है, तब तक हम किसी न किसी तरह की राजनीति में उलझे ही रहेंगे ?" उलझे ही रहोगे। क्योंकि मन ही राजनीतिज्ञ है। मन का जब तक तुम पर कब्जा है, तब तक मन की भाषा यही है, मन के सोचने का ढंग यही है मैक्यावेली ने कहा है, या तो तुम दूसरे के मालिक बन जाओ, अन्यथा दूसरा तुम्हारा मालिक बन जाएगा। यह मन का गणित है । मन कहता है, या तो दूसरे को हराओ, अन्यथा दूसरा तुम्हें हरा देगा । या तो विजेता बनो, या पराजित हो जाओगे । चुन लो जो चुनना हो । मन कोई दूसरा विकल्प ही नहीं देता, बस ये दो बातें देता है— या तो पिट जाओ, या पीट दो 1 दोनों हालतें बुरी हैं। दोनों हालत में जीवन नष्ट हो जाता है। मैक्यावेली को संन्यास का कोई खयाल भी नहीं था, कल्पना भी नहीं थी । संन्यास का अर्थ, दोनों के बाहर हो जाओ। यह जो बाहर हो जाना है, बाहर की घटना नहीं है, यह तो तुम जब मन के बाहर हो जाओगे तभी घटेगी। तो अपने भीतर मन से बाहर सरक जाओ, मन की बहुत मत सुनो। मन कहता है, नाम छोड़ना है ! इतिहास में काम कर जाना है ! कुछ करके दिखा दो! मन कहता है, धन ही इकट्ठा कर लो, पद ही इकट्ठा कर लो, लोगों को बतला दो कि तुम क्या हो ! इस मन की सुनी अगर तुमने, तो तुम चल पड़े महत्वाकांक्षा की यात्रा पर । फिर हो सकता है स्थूल रूप में तुम राजनीति में भाग न भी लो... । समझो कि एक आदमी मुनि हो गया है, वह राजनीति में भाग लेता भी नहीं, लेकिन तब और तरह की राजनीति चलने लगती है। वह सोचता है कि मैं जो संसारी हैं उनसे श्रेष्ठ हूं। यह राजनीति हो गयी। इसमें कुछ फर्क न रहा । श्रेष्ठ हूं, तो राजनीति हो गयी। यह तरकीब से श्रेष्ठ हो गया । कोई आदमी चुनाव लड़कर श्रेष्ठ हो गया, कोई आदमी धन इकट्ठा करके श्रेष्ठ हो गया, यह आदमी त्याग करके श्रेष्ठ 115
SR No.002386
Book TitleDhammapada 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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