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________________ एस धम्मो सनंतनो स्वीकार करो। और जब प्रबल भाव उठ रहा है तो इसको दबाना मत, क्योंकि इसे दबाया अगर, तो यह दबा हुआ भाव बार-बार उभरेगा, और तुम्हें याद बार-बार चोरी की आएगी। और याद बार-बार चोरी की आए और बार-बार अपराध लगे कि बुरा किया, बुरा किया, तो दीनता पैदा होगी, भय पैदा होगा, चिंता पैदा होगी, डर लगेगा कि किसी दिन पकड़ न जाऊं, कोई जान न ले, किसी जाने-अनजाने किसी को खबर न हो जाए। तो तुम्हारे जीवन का जो खुलापन है, वह नष्ट हो जाएगा। जीवन ऐसा हो कि उसमें छिपाने को कुछ भी नहीं है, तो एक मुक्तता होती है। तब तुम बंधे-बंधे अनुभव नहीं करते। खुले अनुभव करते हो। जितने जल्दी हो, छिपाने योग्य बातों को मुक्त कर देना चाहिए, कह देना चाहिए। हानि न होगी, लाभ ही लाभ होगा। ___ और अगर तुम इन घावों से मुक्त हो जाओ, तो ही वह घटना घटेगी जो तुम्हारा दूसरा मन कह रहा है-बीती ताहि बिसार दे आगे की सुधि लेहि। अभी तो वह मन चालबाजी कर रहा है, अभी तो वह मन यह कह रहा है कि छोड़ो भी! अच्छा वचन उद्धृत कर रहा है। तुमने सुना न कि शैतान भी शास्त्र के वचन उद्धृत करता है। शैतान को शास्त्र बिलकुल कंठस्थ है। यह तो बड़ी तरकीब की बात कर रहा है मन। मन कह रहा है, बीती ताहि बिसार दे! अब क्यों पंचायत में पड़ना, किससे कहना, क्या कहना, क्या फायदा! अब किसी को पता भी नहीं चला। नाहक, अपने हाथ से झंझट में क्यों पड़ना! अगर इस मन की मान ली, तो यह वही मन है जिसने चोरी की थी। आज कहता है, बीती ताहि बिसार दे, क्योंकि इसको घबड़ाहट लग रही है कि कहीं प्रबल भाव के प्रवाह में स्वीकार न कर लो। स्वीकार कर लिया तो आगे चोरी करना मुश्किल हो जाएगा। क्योंकि स्वीकार मनुष्य को दिव्य बनाता है। और दिव्यता जैसे-जैसे आनी शुरू होती है, छोटे काम मुश्किल हो जाते हैं। यह मन डरा है। यह मन कह रहा है कि अरे, छोड़ो भी! खुद भगवान ही हजार बार कह चुके कि बीती ताहि बिसार दे, जो गया सो गया, अतीत तो न हो गया, अब उसकी क्या चिंता करना! लेकिन क्या सच में ही बीत गया है? अगर बीत गया था तो याद भी न आती। चोरी तुमने की होगी सालभर पहले कि दस साल पहले, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। अगर यह बीत ही गयी थी बात, तो इसकी याद क्यों आती? । यह बीती नहीं है। तुम्हारे मन में अभी भी अटकी है, कांटे की तरह चुभ रही है। कांटा लगा होगा छह महीने पहले, लेकिन कांटा अभी भी लगा है और चुभता है। और कभी-कभी ऐसा हो जाता है, कांटा भी निकल जाता है और फिर भी चुभन रह जाती है। चुभन भी निकलनी चाहिए, नहीं तो चुभन भी पीड़ा देती है। तुम्हें कई दफा पता चला होगा-कांटा तो निकल गया, फिर भी तुम खोजते हो कि कहीं कांटा 112
SR No.002386
Book TitleDhammapada 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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