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एस धम्मो सनंतनो
पहनते हैं, ऐसे कपड़े पहन लें। इसमें क्या अड़चन है। यह तो बड़ी सुगम बात है। इसमें एक आशा बंधती है कि चलो, उन्हीं जैसे कपड़े पहन लिए, उन्हीं जैसे उठने लगे, उन्हीं जैसे बैठने लगे; वह जब सोते हैं, सोने लगे; वह जिस करवट सोते हैं, उसी करवट सोने लगे, तो शायद भीतर का भी घट जाए। भीतर की जो घटना है, वह बाहर के इन बाह्य आचरणों पर निर्भर नहीं है। तुम सोते रहो ठीक बुद्ध जैसे ही, कुछ फर्क न पड़ेगा।
बुद्धत्व का तो एक ही सूत्र है कि तुम्हारे प्रत्येक कृत्य में जागरूकता समाविष्ट हो जाए। तुम्हारा प्रत्येक कृत्य होश की गरिमा से भर जाए। तुम कुछ भी बेहोशी में न करो-कुछ भी। जो भी तुम करो, उस करने में होश रहे, बोध रहे कि मैं ऐसा कर रहा हूं। जब बोध रहता है तो गलत अपने आप बंद हो जाता है। जब बोध रहता है तो ठीक अपने आप होता है।
तीसरा प्रश्नः
भगवान, अगर कल तक मैंने भी आपके आश्रम में किसी न किसी रूप में चोरी की हो और आज प्रबल भाव उठे कि भगवान के सामने जाकर अपना अपराध स्वीकार करूं और फिर एक मन कहे कि बीती ताहि बिसार दे आगे की सुधि लेहि, तो ऐसे में आप क्या मार्गदर्शन देंगे?
पूछा है कृष्णप्रिया ने।
पहली तो बात, जब भाव उठ रहा है तो भाव तो अभी उठ रहा है। भाव उठ रहा है कि जाकर अपनी चोरी का, या अपनी भूल का, या अपने अपराध का स्वीकार कर लें, यह भाव तो अभी उठ रहा है। यह तो कुछ बीता हुआ भाव नहीं है। चोरी कभी की होगी, उससे कोई प्रयोजन नहीं है। यह भाव कि अपराध को स्वीकार कर लूं, यह तो अभी उठ रहा है। यह भाव तो बीता हुआ नहीं है। यह भाव अतीत में नहीं है, यह भाव तो वर्तमान में है। चोरी रही होगी अतीत में, चोरी को जाने दो, जो हो गया हो गया। लेकिन यह भाव तो अभी उठ रहा है, इस भाव को मत टालो। इस भाव को तो उठने दो, इसे तो प्रगट होने दो।
इस भाव के प्रगट होने में लाभ है। यह भाव पूरी तरह प्रगट हो जाए, इस भाव की पूरी स्वीकृति हो जाए, तो ही संभव होगा-बीती ताहि बिसार दे। क्योंकि जिस बात को हमने स्वीकार कर लिया, उसका बोझ हल्का हो जाता है। नहीं तो बोझ बना ही रहता है। स्वीकार करने का, कनफेशन का यही तो मूल्य है।
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