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मन की मृत्यु का नाम मौन में वर्षों लगाने पड़ते हैं। और बहुत से लोग तो इस चिंता में पड़ते ही नहीं, वे कहते हैं, अब झंझट में क्या पड़ना! अपना हीरा मिल गया, सम्हालकर रखा, अब कौन फिकर में पड़े! अब किसको बताना है! क्या बताना है!
बुद्ध ने ज्ञानी की दो अवस्थाएं कही हैं। एक को कहा-अर्हत, और एक को कहा-बोधिसत्व। अर्हत का अर्थ है, जिसने सत्य को जान लिया। और बोधिसत्व का अर्थ है, जिसने सत्य को जाना ही नहीं, दूसरों की तरफ बहाया भी। अर्हत के मार्ग का नाम बन गया है, हीनयान। छोटी-छोटी डोंगी। अपनी डोंगी में बैठ गए
और चल पड़े, भवसागर पार कर लिया। और बोधिसत्व के मार्ग का नाम पड़ा, महायान। बड़ा यान, जिसमें हजारों लोगों को बिठा लिया। कहा कि आओ, जिनको भी आना है आ जाओ, बैठो, भवसागर के पार जा रहे हैं। जो अकेला पार न हुआ, जिसने दूसरों को भी पार करवाया। जो स्वयं तो तरा, जिसने तारा भी। जो तरण-तारण है।
और तभी उन्होंने ये गाथाएं कहीं
न मोनेन मुनि होति मूल्हरूपो अविछसु। यो च तुलं' व पग्गय्ह वरमादाय पंडितो।। पोपानि परिवज्जेति स मुनी तेन सो मुनी। यो मुनाति उभो लोके मुनी तेन पवुच्चति।।
'मौन धारण करने मात्र से कोई अविद्वान मूढ़ मुनि नहीं होता। जो पंडित मानो श्रेष्ठ तुला लेकर दोनों लोक को तौलता है और पापों को छोड़ देता है, वह इस कारण मुनि है और इसी कारण मुनि कहलाता है।' ___ जिसने दोनों लोकों को तौल लिया अपनी चेतना में-जैसे सूक्ष्म तराजू लेकर-न यहां कुछ पाने योग्य पाया, न वहां कुछ पाने योग्य पाया। जिसने दोनों लोक तौल लिए। न संसार में कुछ पाया कि संसार में कुछ पाने योग्य है; पाप में कुछ भी नहीं, जिसने मोक्ष में भी कुछ नहीं पाया कि पुण्य में भी कुछ भी नहीं, जिसने दोनों में कुछ नहीं पाया; ऐसी दशा में चित्त बिलकुल ही शांत हो जाता है। जब पाने को ही कुछ नहीं, तो अशांति कहां से हो! अशांति तो पाने की दौड़ से होती है—यह पालं, यह पा लूं, तो मन अशांत होता है। ___ मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, मन शांत करना है। मैं उनसे कहता हूं, लेकिन मन को शांत करने की व्यवस्था पता है! महत्वाकांक्षा छोड़नी पड़ती है। वे कहते हैं, यह तो जरा मुश्किल है। सच तो यह है, वे कहते हैं, कि हम आए ही इसलिए थे कि मन शांत हो जाए तो महत्वाकांक्षा की दौड़ में ठीक से दौड़ लें।
एक राज्य के मंत्री मेरी पास आते थे। वह कहते कि मैं आज बीस साल से मंत्री