________________
एस धम्मो सनंतनो
इसके लिए ठीक-ठीक शब्द जुंग ने खोजा है। वह शब्द है-सिंक्रानिसिटी। यहां कुछ होता है, ठीक वैसा ही दूसरे हृदय में होने लगता है अगर हृदय खुलने को तैयार हो-ठीक वैसा ही। न यहां से वहां कुछ जाता, न वहां से यहां कुछ आता, समानांतर घटना घटने लगती है।
तुमने नहीं देखा, कभी कोई तबला बजाता और तुम्हारे पैर थिरकने लगते हैं! कभी किसी नर्तक को देखकर तुम भी ताल देने लगते। क्या हो जाता है? सिंक्रानिसिटी। वहां कुछ घट रहा है, तुम्हारे भीतर भी कोई सोया हुआ पड़ा है, यहां भी कुछ घटने लगता है। आखिर तुम भी तो हो नर्तक! न नाचे होओ कभी, यह दूसरी बात है। लेकिन मीरा तुम्हारे भीतर भी सोयी तो पड़ी है। मीरा कभी नाचती हो बाहर-संयोग मिल जाए-और तुम डरे-डरे आदमी न होओ, भयभीत आदमी न होओ, तर्क में छिपे आदमी न होओ, तुम हृदय को खोल सको, द्वार-दरवाजे खोल सको और मीरा का झोंका तुम्हारे भीतर से गुजर जाए, तो तुम्हारी मीरा भी जग उठेगी! बस ऐसा ही होता है। ___ तो बुद्ध ने कहा, कुछ जानते हुए भी नहीं बोल पाते हैं, क्योंकि बोलने की दक्षता नहीं है। और कुछ कृपणता के कारण नहीं बोलते हैं, क्योंकि जो उन्होंने जाना है, कहीं उसे दूसरे न जान लें। उसको संपत्ति की तरह पकड़कर रखते हैं। पहले तो जानना कठिन, फिर जाने हुए को जनाना और भी कठिन। शून्य में जाने हुए को शब्द तक लाने के लिए महाकरुणा अनिवार्य है।
इसलिए बुद्ध ने अपने भिक्षुओं से कहा, इसकी चिंता मत करो कि दूसरे क्या कहते हैं; तुमने जो जाना है, उसे जनाओ। तुम्हें जो मिला है, उसे बांटो। कहने दो, दूसरे क्या कहते हैं, इसकी चिंता मत लो। । पहले तो जानना कठिन और फिर जाने हुए को जनाना और भी कठिन।
दुनिया में सत्य को बहुत लोग उपलब्ध नहीं होते, लेकिन फिर भी काफी लोग उपलब्ध होते हैं। मगर जो लोग सत्य को उपलब्ध होते हैं, उनमें सभी लोग सदगुरु नहीं हो पाते। सदगुरु तो वही हो पाता है, जिसने जाना और जनाया भी। सत्य को तो उपलब्ध हो जाते हैं बहुत लोग।
ऐसा बुद्ध के जीवन में हुआ। उनके पास एक सम्राट मिलने आया, अजातशत्रु। और उसने बुद्ध से पूछा कि आपके दस हजार भिक्षु हैं, इनमें से कितने लोग बुद्धत्व को उपलब्ध हुए हैं? तो बुद्ध ने कहा, इनमें से बहुत लोग बुद्धत्व को उपलब्ध हो गए हैं। उसने कहा, मुझे बात जंचती नहीं। क्योंकि आपके अतिरिक्त इनमें से कोई भी प्रसिद्ध क्यों नहीं है ? तो बुद्ध ने कहा, यह जरा दूसरी बात है। बुद्धत्व को उपलब्ध होना एक बात, जानना एक बात, जनाना बिलकुल दूसरी बात। इन्होंने जान तो लिया है, मगर अब कैसे जनाएं? हां, इनमें से कुछ धीरे-धीरे दक्ष हो रहे हैं जनाने में भी। धीरे-धीरे। जैसे आदमी सत्य को जानने में वर्षों लगाता है, ऐसे फिर सत्य को जनाने
92