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________________ मन की मृत्यु का नाम मौन घटेगा, संस्कार के छूट जाने पर वह जो परमात्मा का राज्य मिलेगा, उसको ध्यान में रखकर कहाः स्वामी। और बुद्ध ने कहा, वह तो बाद में घटेगा, तब घटेगा, वह तो देर की बात है, पहले तो भिक्षु होना पड़ेगा। हिंदुओं ने अंत को खयाल में रखा, बुद्ध ने प्रारंभ को खयाल में रखा। ___ और मेरी दृष्टि में प्रारंभ को खयाल में रखना ज्यादा मूल्यवान है, क्योंकि अंत तो आ जाएगा; बीज तो बोओ, फल तो लग जाएंगे। लेकिन कहीं ऐसा न हो कि पहले से ही आदमी अकड़कर बैठ जाए कि मैं स्वामी हूं, तो भिक्षु हो ही न पाए। और जो भिक्षु नहीं हुआ, वह स्वामी न हो सकेगा। तो भगवान ने कहा, ब्राह्मण, भिक्षामात्र करने से कोई भिक्षु नहीं होता। भिखारी चाहो तो मान ले सकते हो। __खूब गहरा भेद किया। भाषाकोश में तो एक ही बात लिखी है, भिक्षु कहो कि भिखारी, क्या फर्क पड़ता है! भिक्षाटन जो करता वह भिखारी और भिक्षाटन जो करता—भिक्षु। इसलिए बुद्धों के वचन समझने हों तो भाषाकोश का सहारा नहीं लेना चाहिए। उनके प्रत्येक शब्द का अर्थ उनसे ही पूछना चाहिए। वे बोलते तो भाषा हैं, लेकिन भाषा में कुछ ऐसा बोलते हैं जो भाषा से बहुत पार का है। भिखारी और भिक्षु पर्यायवाची नहीं हैं। भाषाकोश में तो हैं, लेकिन जीवन के अनुभव में, जीवन के कोश में नहीं हैं। मैं उसे भिक्षु कहता हूं, जिसने सब संस्कार छोड़ दिए। जिसने सारी कंडीशनिंग छोड़ दी, जो अनकंडीशंड हो गया। जो संस्कार-शून्य हो गया। जो सहज निर्मल हो गया। जैसा आया था जन्म के क्षण वैसा फिर हो गया, बीच में जो-जो लिखावट बनी, सब पोंछ डाली। उसको भिक्षु कहता हूं। और उसे भिक्षु कहता हूं, जो भीतर एक शून्य मात्र हो गया है; वह शून्य ही असली भिक्षापात्र है। जिसके भीतर एक शून्य पैदा हो गया, जिसको इतना भी भाव नहीं रहा कि मैं हूं। इसलिए बुद्ध ने आत्मा शब्द का उपयोग नहीं किया, क्योंकि आत्मा शब्द में मैं हूं की भनक है। बुद्ध ने शब्द प्रयोग किया, अनात्मा। बड़े अनूठे व्यक्ति थे बुद्ध। उन्होंने शब्द प्रयोग किया, अनत्ता। अत्ता का अर्थ होता है-मैं, अनत्ता का अर्थ होता है-न-मैं। आत्मा का अर्थ होता है-मैं, अनात्मा का अर्थ होता है-न-मैं। भारत की हजारों वर्ष की परंपरा थी आत्मा शब्द को बड़ा बहुमूल्य मानने की, बुद्ध ने वह परंपरा भी तोड़ दी। उन्होंने कहा, यह आत्मा शब्द अज्ञान से भरा है। इसमें मैं का भाव बचा रहता है। मैं का भाव तो जाना चाहिए। मैं तो संस्कारों का ही नाम है। सब संस्कारों के जोड़ से मैं बनता है। जब सारे संस्कार चले गए तो कैसा मैं? कोरा आकाश रह जाता है। बदलियां तो गयीं, बादल तो गए, निरभ्र आकाश रह गया। उस आकाश को बुद्ध कहते हैं, वही असली भिक्षापात्र है। और जिसने उस भीतर के भिक्षापात्र को पा लिया, उसे मैं भिक्षु कहता हूं। 87
SR No.002386
Book TitleDhammapada 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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