SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 101
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एस धम्मो सनंतनो और तब उन्होंने ये गाथाएं कहीं योध पुञञ्च पापञ्च वाहित्वा ब्रह्मचरिय वा। संखाय लोके चरति स वे भिक्खूति वुच्चति।। 'जो पुण्य और पाप, दोनों को त्यागकर ब्रह्मचर्य से रहता है, ज्ञानपूर्वक लोक में विचरण करता है, वह भिक्षु। उसे मैं भिक्षु कहता हूं।' समझना इस सूत्र को'जो पुण्य और पाप, दोनों को त्यागकर।' साधारणतः हमसे कहा जाता है, पाप त्यागो। बुद्ध कहते हैं, पाप तो त्यागो ही, लेकिन पुण्य को मत पकड़ लेना। नहीं तो कुएं से बचे, खाई में गिरे। लोहे की जंजीरें टूटी, सोने की जंजीरें ढाल लीं। पाप तो बांधता ही है, पुण्य भी बांधता है। देखते नहीं, पुण्यात्मा भी कैसा अकड़ जाता है, कैसे मैं से भर जाता है कि मैंने पुण्य किया, कि मैं पुण्यधर्मा हूं, कि दानी हूं, कि ऐसा हूं, कि वैसा हूं। देखते हैं समाज-सेवक को कि कैसा अकड़कर चलने लगता है कि मैं समाज की सेवा कर रहा हूं। यह अकड़ तो फिर अहंकार ही बन जाएगी। ___ इसलिए बुद्ध कहते हैं, मैं भिक्षु उसे कहता हूं, जिसने पाप तो छोड़ा ही, पुण्य भी छोड़ा। जिसने सब छोड़ा, जिसने पकड़ना छोड़ा। जिसने कर्ता का भाव छोड़ा। जिसने सिर्फ एक भाव भीतर गहरा लिया-शून्य है, शून्य है, और कुछ भी नहीं है। इसलिए बुद्ध का दर्शन शून्यवाद कहलाया। 'और जो ज्ञानपूर्वक लोक में विचरण करता है।' ज्ञानपूर्वक शब्द का ठीक अर्थ समझ लेना। बुद्ध की बड़ी विशिष्ट परिभाषा है। ज्ञानपूर्वक का यह अर्थ नहीं कि जो शास्त्रों को सिर पर रखे हुए जगत में विचरण करता है। ज्ञानपूर्वक का अर्थ होता है, बोधपूर्वक, स्मृतिपूर्वक, होशपूर्वक, अवेयरनेस के साथ जो जगत में विचरण करता है। एक-एक कदम जो होशपूर्वक उठाता है; श्वास भी जो होशपूर्वक लेता है; जो अपने जीवन में कुछ भी बेहोशी में नहीं करता, उसे मैं भिक्षु कहता हूं। _ 'और जो पाप और पुण्य दोनों को त्यागकर ब्रह्मचर्य से रहता है।' ब्रह्मचर्य शब्द का अर्थ उतना नहीं है, जैसा तुमने मान रखा है, उससे बहुत बड़ा है। ब्रह्मचर्य का ठीक अर्थ होता है, ब्रह्म की चर्या। ईश्वरीय चर्या। ब्रह्मचर्य का इतना ही अर्थ नहीं होता जितना अर्थ अंग्रेजी के सेलिबेसी का होता है। ब्रह्मचर्य का इतना ही मतलब नहीं होता कि जो कामवासना में नहीं उतरता। वह तो बड़ा छोटा अर्थ है। वह तो है ही, लेकिन वह बड़ा छोटा अर्थ है, उतने पर बात समाप्त नहीं होती। ब्रह्मचर्य की पूरी बात तो तब होती है, जब कोई व्यक्ति ईश्वरीय चर्या में जीता है। 88
SR No.002386
Book TitleDhammapada 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy