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आदमी अकेला है
सीताराम! .
जैसे ही लोगों को तुम्हारी गांठ पता चल जाए, लोग सताने लगते हैं। वही-वही करने लगते हैं। __महावीर नग्न हो गए, इसका अर्थ इतना ही है कि जब कोई गांठ न रही, तो अब छिपाने को कुछ न रहा। निग्रंथ हो गए। छोटे बच्चे की भांति खड़े हो गए।
गंथा तेसं न विज्जन्ति.../
जो न प्रेम के संबंध बनाता, न अप्रेम के; न मित्र बनाता, न शत्रु, उसकी सारी ग्रंथियां गल जाती हैं।
अब तुम समझो।
जीसस कहते हैं, शत्रु को भी मित्र मानो। बात ऊंची कहते हैं। मगर इतनी ऊंची नहीं है जितनी बुद्ध की बात है। क्यों? क्योंकि जीसस कहते हैं, शत्रु को भी मित्र मानो। लेकिन अगर तुम अभी मित्रता मानते हो, तो शत्रुता से छूट न सकोगे। क्योंकि मित्रता का अर्थ ही क्या होता है ? मित्रता अर्थहीन है, अगर शत्रुता न हो। अगर कोई
आदमी कहे कि सभी मेरे मित्र हैं, तो इसका मतलब यह हुआ कि कोई मित्र नहीं है। मित्रता का अर्थ ही तब होता है जब कोई शत्रु भी हो। अगर तुम कहते हो, सभी मेरे मित्र हैं, तो कोई मित्र नहीं है। अगर तुम कहते हो, मैं सभी को प्रेम करता हूं, तो इसका साफ मतलब हुआ, तुम किसी को प्रेम नहीं करते। क्योंकि प्रेम का मतलब होता है, चुनाव। __ अगर कोई स्त्री तुमसे पूछे कि क्या आप मुझे प्रेम करते हो? तुम कहो कि जरूर करता हूं, क्योंकि मैं तो सभी को प्रेम करता हूं, तो वह स्त्री तुमसे प्रसन्न न होगी। वह कहेगी, रास्ता पकड़ो। सभी को प्रेम करने वाले आदमी से क्या लेना-देना! तुम कुछ ऐसी बात कहो कि तुम्हीं को प्रेम करता हूं और तुम्हीं को प्रेम करूंगा और सदा तुम्हीं को किया। जन्म-जन्म से तुम्हीं को खोज रहा था और अब जन्म-जन्म तक तुम्हारे साथ ही रहूंगा। यह संबंध शाश्वत है, अब यह कभी छूटेगा नहीं। हमको एक-दूसरे को भगवान ने एक-दूसरे के लिए ही बनाया है। तब स्त्री प्रसन्न होगी। तब लगता है कि तुमने विशिष्टता दी। ___अगर तुम कहो, सभी मित्र हैं, तो तुम्हारे मित्र नाराज हो जाएंगे शत्रुओं की
तो छोड़ो-मित्र कहने लगेंगे, तो फिर मतलब ही क्या हुआ। ___जीसस कहते हैं, शत्रुओं को मित्र बना लो। बुद्ध कहते हैं, शत्रु और मित्र दोनों साथ-साथ हैं। जब तक तुम शत्रु मानते हो, तभी तक मित्र हैं। जब तक तुम मित्र मानते हो, तब तक शत्रु भी रहेंगे। दोनों को जाने दो। यह संबंध ही विदा करो। यह संबंध ही ठीक नहीं। इस संबंध से गांठें बनती हैं, गांठें दुख देती हैं।
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