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________________ आदमी अकेला है मालूम होने लगती है! अकेले रहते ही से कुछ घबड़ाहट, कुछ भय पकड़ता है! कोई असुरक्षा! अब कोई भी नहीं है, संगी-साथी नहीं है। और जिनको तुम संगी-साथी कहते हो, वे भी क्या हैं। उनके होने से भी क्या हो गया है? कुछ भी नहीं हो गया है। मगर एक बात बनी रहती है कि शोरगुल बना रहता है, भीड़-भाड़ बनी रहती है। भीड़-भाड़ और शोरगुल में तुम अपने को भूले रहते हो। दिनभर की आपाधापी, रात आकर गिर जाते बिस्तर पर थके-मांदे, सुबह उठकर फिर चल पड़ते हो। ऐसे भूले रहते हो। ऐसे याद नहीं आता कि क्या गंवा रहे हो। ऐसे खयाल में नहीं आता कि क्या खो रहे हो। यह सारी दौड़-धूप एक तरह की शराब है, जो तुम्हें अपने से वंचित रखती है। बुद्ध ने कहा, इस बात को खयाल में लो, श्रेय को पकड़ो, प्रेय को छोड़ो। और अगर तुमसे अभी यह न हो सके तो कम से कम जिन्होंने प्रेय को छोड़ दिया है और श्रेय की यात्रा पर निकले हैं, उनसे स्पृहा तो करो। यहां इतने भिक्षु हैं, बुद्ध ने कहा होगा, जो श्रेय की यात्रा पर निकले हैं, इनकी शांति तो देखो! मुझे तो देखो, बुद्ध ने कहा होगा। सुसुखं वत! जरा मेरे सुख को देखो। मेरी तरफ आंखें उठाओ, यह मेरे आनंद का जो शिखर खड़ा हुआ है, इस पर जरा आंखें गड़ाओ। यहां मेरे पास रहकर, इतने भिक्षुओं से घिरे रहकर, इतने लोग ध्यान कर रहे, इतने लोग समाधि में उतर रहे, इतने लोग समाधि को प्राप्त हो गए, इस अपूर्व वातावरण में भी तुम तीनों बैठकर एक-दूसरे को पकड़े हुए हो! फालतू की बातों में लगे हो! यहां इतना श्रेय घटित हो रहा है, ऐसी श्रेय की तरंगें उठ रही हैं, लहरें उठ रही हैं, इन पर सवार हो जाओ। यह इतनी बड़ी नौका श्रेय की तरफ जा रही है, इसमें बैठने का तुम्हारा मन नहीं करता? और इस नौका में जो बैठे हैं, उन्हें देखकर तुम्हारे मन में स्पृहा पैदा नहीं होती? खयाल रखना, दो शब्द-स्पृहा और ईर्ष्या। ईर्ष्या सांसारिक स्पृहा है और स्पृहा सांसारिक से पार, वह जो परमात्म है, परमार्थ है, अध्यार है, उसमें दूसरों को मिल रहा है, मुझे नहीं मिल रहा! कम से कम इस बात की चोट तो होने दो। दूसरे जग रहे हैं, मैं अभी तक सोया हूं, कम से कम इस बात की पीड़ा तो चुभने दो, कांटा तो लगने दो। यहां इतने संन्यासियों के बीच भी तुम अपने घर में ही बने हुए हो! तुम वहां से आए ही नहीं! यह मां-बाप और बेटा, बस, यह तुम तीनों ने अपना एक अड्डा बना लिया है! थोड़ा जागकर देखो। चलो संयोगवशात ही यह मौका मिल गया है। न बेटे को संन्यास में रस था, न तुम्हें संन्यास में रस है। संयोगवशात तुम यहां आ गए हो, लेकिन फिर भी लाभ तो ले सकते हो। संयोगवशात ही कोई बगीचे में आ जाए, तो भी फूलों के सौंदर्य का आनंद तो ले ही सकता है। शायद दुबारा फिर आकांक्षा करके आए, अभीप्सा करके आए। ऐसा घटता है। यहां किसी का बेटा संन्यस्त हो गया है...।
SR No.002385
Book TitleDhammapada 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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