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एस धम्मो सनंतनो
शांति हो जाती, बड़ा आनंद हो जाता। तुम वस्तुतः सत्य को देख नहीं पाए कि दूसरे में सुख होता ही नहीं-सुपुत्र में भी नहीं होता, कुपुत्र में तो होता ही नहीं। कुरूप में तो होता ही नहीं, सुरूप में भी नहीं होता। दूसरे में सुख होता ही नहीं—बुरी स्त्री में तो होता ही नहीं, भली स्त्री में भी नहीं होता। असाधु में तो होता ही नहीं, साधु में भी नहीं होता, सुख दूसरे में होता ही नहीं। यह दूसरे से सुख के भाव का सब भांति से मुक्त हो जाना संन्यास है।
युवक घर से भागा, क्योंकि वह मां-बाप से परेशान हो गया था। उनका मोह करीब-करीब कारागृह बन गया था। अकेला कहीं जा न सके। कोई राग-रंग में अकेला सम्मिलित न हो सके, वह बाप और मां पीछे ही लगे रहें। यह जरा अति हो गयी। इस अति से वह भागा। लेकिन संन्यासी तो नहीं था। और मां-बाप को तो कोई प्रयोजन ही न था, इतना भी प्रयोजन नहीं था। उनको तो मोह था। उनको तो खयाल था कि बेटे के कारण सब हो जाएगा। जो चाहिए वह हो जाएगा। बस बेटे में जैसे परमात्मा मिल गया, सब मिल गया था। इसके पार उनकी आंखें ही न उठी थीं। वे जमीन पर रेंगते हुए चल रहे थे। जमीन पर आंखें गड़ाए हुए चल रहे थे।
और ध्यान रखना, जो जमीन पर आंखें गड़ाए चलेगा, उसे अगर आकाश के तारे न दिखायी पड़ें तो तारों का कोई कसूर नहीं है। तारे तो हैं। तुम्हारे लिए भी उतने हैं जितने कि बुद्ध और महावीर और कृष्ण और कबीर के लिए हैं। मगर तुम आंखें ही जमीन पर गड़ाए रखोगे तो तारों का कोई कसूर नहीं है। आंखें ऊपर उठेगी तो ही तारे दिखायी पड़ेंगे।
बुद्ध ने उनसे पूछा कि यह मामला क्या है, यह कैसा संन्यास! यह तो संन्यास की शुरुआत ही गलत हो गयी मालूम होती है। तो बाप ने कहा, असली बात यह है-संन्यास से हमें कुछ लेना-देना नहीं। मैं और मेरी पत्नी बेटे के साथ रहना चाहते हैं और बेटा भागता है, भगोड़ा है, बचना चाहता है, खराब होना चाहता है; बुरे संग में पड़ जाएगा, बिगड़ जाएगा, तो हम इसे बचाने के लिए इसके पीछे रहते हैं। और यह बुरे संग में पड़ना चाहता है। बूढ़े बाप ने कहा कि आप तो जानते ही हैं, जवानी कैसी होती है। यह कहीं बिगड़ न जाए इसलिए हम पीछे लगे हैं। और यह बिगड़ने के लिए आतुर है, तो यह भागता है। न इसे संन्यास से कुछ लेना-देना है, न हमें कुछ लेना-देना है। हम तीनों एक साथ ही रहें, इसलिए हमने संन्यास ले लिया है। हम अलग-अलग नहीं रह सकते।
तब भगवान ने कहा, प्रिय का अदर्शन और अप्रिय का दर्शन दुखकर है, इसलिए किसी को प्रिय या अप्रिय नहीं करना चाहिए। और दुख का मूल यही है कि दूसरे से मिलेगा। दूसरे से आशा, दूसरे से संभावना सारे दुख का मूल है। फिर नहीं मिलता तो क्रोध आता है, फिर नहीं मिलता तो क्षोभ पैदा होता है। जहां मोह है, वहां मोहभंग पर क्षोभ पैदा होता है।
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